झारखंड में बलात्कार की घटनाओं का जैसे विस्फोट सा हो गया है. इसकी पुष्टि सरकारी आंकड़े ही कर रहे हैं. इन आंकड़ों के अनुसार 2020 के 30 नवंबर तक राज्य भर में 1556 बलात्कार के मामले दर्ज हुए हैं. इनमें से मात्र 82 कांडों का पुलिस अंतिम पत्र सौंप पायी है और 1026 आरोपियों को गिरफ्तार कर पायी है. सबसे अधिक 187 घटनाएं रांची जिले में ही है. इतनी घटनाएं कहां हुई और कैसे हुई, यह बताना अनावश्यक ही है, क्योंकि हर घटना में एक लड़की, तीन-चार या कभी-कभी 10-11 पुरुषों के हवस की शिकार होती है. घटना के बाद लड़की को मार दिया जाता हैं या लड़की खुद मानसिक तथा शारीरिक आघातों से मर जाती है.
निर्भया कांड के बाद बलात्कार के कठोर कानून बने. मृत्युदंड की सजा का प्रावधान किया गया. यह इसलिए कि इस कानून के डर से बलात्कार की घटनाओं में कमी आये. लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है. झारखंड ही नहीं पूरे भारत में बलात्कार की वीभत्स घटनाएं घटी हैं. बढ़ते हुए इन घटनाओं का कारण ढ़ूंढ़ा जाये तो सबसे पहले पुलिस की लापरवाही या संवेदनहीनता की ओड़ घ्यान जाता है. पीड़ित लड़की बदनामी के डर से थाने तक जाने का साहस नहीं करती है. यदि कोई लड़की थाने चली भी जाती है तो पुलिस कई बार एफआईआर दर्ज नहीं करती है. या दर्ज करती भी है तो अनर्गल पूछताछ के बाद. अपराधी को पकड़ने में तथा कोर्ट में उसके अपराध को साबित करने में बहुत समय लग जाता है. कोर्ट की लंबी प्रक्रिया में कई वर्ष लग जाते हैं. तब तक घटना को लोग भूल जाते हैं. उनका आक्रोश समापत हो जाता है, तब चाहे जितना भी कठोर दंड दिया जाये, इसका प्रभाव वैसा नहीं रह जाता है जिसकी अपेक्षा की जाती है.
वैसे, समाज शास्त्रियों का कहना है कि बलात्कार मानसिक विकृति का परिणाम होता है. इस हिसाब से सारे बलात्कारी मानसिक रोगी हैं और बलात्कार की घटनाओं के साथ-साथ उनकी संख्या भी बढ़ती जायेगी जो कि समाज के लिए घातक है. सबसे पहले तो उनका इलाज होना चाहिए. वैसे, यह तर्क भी पितृसत्तात्मक समाज का एक बचाव हो सकता है. पितृसत्तात्मक समाज में बलात्कार की दोषी लड़कियों को ही माना जाता है. उनके विचार से लड़की की शिक्षा, उसके आधुनिक पोशाक, आर्थिक स्वाबलंबन, पुरुषों को उत्तेजित करते हैं. इसलिए पुरुष अपराधी नहीं हो सकता. दूसरी ओड़ लड़कियां अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकती हैं, इसलिए उन्हें पुरुषों के संरक्षण में ही रहना चाहिए. ऐसे समाज में स्त्री को उपभोग की सामग्री समझा जाता है. पुरुष के अत्याचार से बचने के लिए उसे अपने पिता भाई या पति के संरक्षण में ही रहना जरूरी है.
झारखंड बनने के बाद यह आशा की जा रही थी कि आदिवासी जो अब अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक हो गये हैं, के हितों की रक्षा हो सकेगी. आदिवासी समाज स्त्री- पुरुषों की समानता में विश्वास रखने वाला होता है. यहां की लड़कियां स्वाबलंबी तथा निडर होती हैं. उन्हें पिता, भाई या पति के संरक्षण की जरूरत नहीं है. ऐसे राज्य में बहिरागतों के साथ आये सामाजिक विकार आदिवासियों को भी अपना ग्रास बनाने लगे हैं. बलात्कार की शिकार आदिवासी लड़कियां भी हो रही हैं और बलात्कारियों में आदिवासी लड़कों के नाम भी आ रहे हैं. यह अपसंस्कृति मोबाईल तथा टीवी के द्वारा भी फैल रहा है. गैर आदिवासी समाज जातियों में बंटा है. उंची जाति के पुरुष दलित या छोटी जाति की महिलाओं का बलात्कार कर अपने पौरुष का प्रदर्शन करते हैं और उन औरतों को उसी लायक समझा जाता है. उनका यही दृष्टिकोण झारखंडी समाज के लिए भी है जो यहां इस विकृति को फैला रहा है और चिंता का विषय है.