देश के आजाद हुए 70 वर्ष से अधिक हो गये. जमींदारी प्रथा का घोषित रूप से उन्मूलन हो गया. इसके बावजूद आदिवासी क्षेत्र के बाहर की कृषि व्यवस्था और भूमि के मालिकाना हक को लेकर पैदा हुई विषमता भयावह है. और उस विषमता को खत्म किये बगैर कृषि क्षेत्र में किसी क्रांतिकारी बदलाव की उम्मीद करना एक दिवा स्वप्न ही है. लंबे समय से चल रहे किसान आंदोलन भी इस बुनियादी समस्या के समाधान की दिशा में कम सचेष्ट दिखाई देते हैं. यह विषमता कितनी गहरी और चैड़ी है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आदिवासी क्षेत्र के बाहर अमूमन ग्रामीण आबादी के आधे हिस्से को 3 फीसदी जमीन पर मालिकाना हक प्राप्त है, जबकि उपर की दस फीसदी ग्रामीण आबादी को 64 फीसदी जमीन पर मालिकाना हक प्राप्त है.

समय के साथ आदिवासी इलाकों में भी कृषि क्षेत्र में विसंगतियां पैदा हो रही हैं, लेकिन आदिवासी समाज में सामान्य जन भी जिस तरह जल, जंगल, जमीन पर बराबरी का हक रखते दिखते हैं, वैसा गैर आदिवासी क्षेत्र में दुर्लभ है. यह सही है कि नेहरु युगीन विकास माॅडल ने आदिवासी इलाकों में विस्थापितों की एक बड़ी फौज खड़ी कर दी है और उस व्यवस्था को चोट पहुंचाई है जिसमें गरीब से गरीब आदिवासी के पास अपना घर, थोड़ी सी बाड़ी और जमीन का छोटा-बड़ा टुकड़ा हुआ करता था. न यहां भूमिहीन हुआ करते थे और न बड़े भूपति. लेकिन देश में तो दलितों की एक विशाल आबादी के पास आज भी अपनी जमीन पर अपना घर नहीं. वे जमींदारों की जमीन पर बसे हुए हैं.

इस संबंध में स्वामीनाथन आयोग ने 1991-92 के आकड़ों को आधार बना कर जो पांचवी रिपोर्ट दी है, उसमें कृषि क्षेत्र की इस विषमता को रेखांकित किया गया है. रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण आबादी के आधे हिस्से को 3 फीसदी जमीन पर मालिकाना हक प्राप्त है, जबकि उपर की दस फीसदी ग्रामीण आबादी को 64 फीसदी जमीन पर मालिकाना हक प्राप्त है.

  • ग्रामीण भारत में 11.24 फीसदी आबादी भूमिहीन
  • एक एकड़ से कम कम जमीन वाले 40.11 फीसदी किसानों के पास 3.13 फीसदी जमीन
  • एक से ढ़ाई एकड़ वाले 20.52 फीसदी किसानों के पास 13.13 फीसदी जमीन
  • ढ़ाई से पांच से कम एकड़ जमीन रखने वाले 13.42 फीसदी किसानों के पास 18.59 फीसदी जमीन
  • पांच से 15 एकड़ से कम जमीन रखने वाले 12.09 फीसदी किसानों के पास 37.81 फीसदी जमीन
  • 15 एकड़ से अधिक जमीन रखने वाले बउ़े किसानों के हिस्से 26.67 फीसदी जमीन

यह कृषि क्षेत्र की भयावह विषमता को पेश करने वाली तस्वीर है. जब तक भूमि सुधार नहीं होता, तब तक कृषि क्षेत्र में न कोई बुनियादी परिवर्तन होने वाला है और न कृषि क्षेत्र में जनता की व्यापक भागिदारी हाने के लक्षण दिखाई देते हैं. इसीलिए स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों में सबसे प्रमुख सिफारिश लैंड रिफार्मस ही है. सिलिंग से फाजिल जमीन को भूमिहीनों में बांटिये. कृषि योग्य जमीन को कारपोरेट को देने से बाज आईये. कृषि योग्य जमीन को गैर कृषि कार्यों में उपयोग नहीं कीजिये. घास काटने और मौसमी वनोत्पाद पर आदिवासियों का अधिकार बरकरार रखिये. खेंत को सिंचित करने की व्यवस्था कीजिये. हमारे यहां फिलहाल 192 मिलियन हेक्टेयर कृषि योग्य जमीन का महज 60 फीसदी सिंचित है.

इन्हीं सब विसंगतियों की वजह से कृषि क्षेत्र से लोग पलायन कर रहे हैं. स्वामीनाथ रिपोर्ट में दर्ज आंकड़ों के अनुसार 1961 में जहां 75.9 फीसदी लोग कृषि क्षेत्र पर निर्भर थे, वे 1999-20 तक महज 59.9 फीसदी रह गये हैं. शेष लोग कहां गये? उजरती मजदूर बन गये. और यह प्रक्रिया निरंतर जारी है. इसलिए कृषि क्षेत्र में बदलाव के लिए सबसे जरूरी आज भी है लैंड रिफार्मस.

और जरूरी है आदिवासी क्षेत्र उस भूमि व्यवस्था को बरकरार रखना जिसने यहां के समाज में वह विषमता पैदा नहीं की जो आदिवासी क्षेत्र के बाहर दिखायी देता है.