सिंधू बोर्डर पर किसान आंदोलन के तीन माह पूरे हो गये. इतना लंबा और इतनी बड़ी जन भागिदारी वाला धरना इतिहास में बिरल है, लेकिन साथ ही यह सही वक्त भी है कि हम थोड़ा ठहर कर किसान आंदोलन का विश्लेषण और मूल्यांकन करें ताकि हम इस ऐतिहासिक आंदोलन को मुकाम तक पहुंचा सकें.

यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि यह आंदोलन पूर्णतः शांतिमय और व्यापक जन भागिदारी वाला रहा. मांगों पर आंदोलनकारी अडिग रहे. इसे 26 जनवरी को लालकिले पर हुई हिंसक वारदातों के द्वारा कलंकित करने की कोशिश हुई और इसमें सत्ता पक्ष की भूमिका स्पष्ट रूप से दिखायी देती है. लेकिन जैसा की पूर्व में हो चुका है, इस घटना को ही आधार बना कर सत्ता पक्ष द्वारा आंदोलनकारी नेताओं को ही कानूनी शिकंजे में फंसा कर आंदोलन को कुचलने की कोशिश हो रही है.

जिस तरह भीमा कोरेगांव मामले में दलितों और उनके समर्थकों को ही फंासा गया है, जेएनयू में पिटाई तो वहां के छात्रों की ही अराजक तत्वों द्वारा हुई और अब वहां के कुछ छात्र नेताओं को ही हिंसा के लिए जिम्मेदार बताया जा रहा है, दिल्ली दंगे में जिस समुदाय के लोग मारे गये, उसी समुदाय के अधिकतर लोग अभियुक्त बनाये जा रहे हैं, उसी तरह किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए लाल किले की घटना को आधार बना कर किसान आंदोलन के नेताओं पर ही शिकंजा कसा जा रहा है. और तो और किसान आंदोलन के समर्थकों को भी घेरा जा रहा है.

और आंदोलन किस हद तक सफल रहा, यदि इस पर विचार किया जाये तो कहा जा सकता है कि उसकी कोई भी मांग पूरी नहीं हुई. आंदोलनकारी तीनों नये बने कृषि कानूनों को निरस्त करना चाहते हैं और सरकार इसके लिए तैयार नहीं. और आने वाले दिनों में भी तैयार होगी, इसकी उम्मीद नहीं. आशंका तो यही है कि वह फिलहाल बंगाल चुनाव में व्यस्त रहेगी. हां, यदि उस चुनाव में उसकी हार हुई, तब शायद वह किसानों की मांग पर गौर करे.

लेकिन क्या इसे आंदोलन की विफलता मानी जाये? मेरे हिसाब से नहीं. दरअसल लोकतांत्रिक तरीके से चल रहे आंदोलन की सफलता के लिए यह भी जरूरी है कि सरकार का भी विश्वास लोकतंत्र में हो. लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उसमें सम्मान हो. जबकि मोदी सरकार को लोकतांत्रिक मूल्यों पर जरा भी भरोसा नहीं और न लोकतांत्रिक तरीकों से चल रहे आंदोलन के प्रति आदर भाव. लोकतंत्र उनके लिए महज से ‘टूल’ है सत्ता प्राप्ति के लिए और संसदीय व्यवस्था व बहुमत पर आधारित संसदीय प्रणाली के अंतरविरोधों की वजह से वे इसमें सफल भी हो रहे हैं.

फिर ऐसी सत्ता से जनता कैसे निबटे?

  • कानून बनाने का काम संसद करती है. बहुमत वाली सरकारें करती है. तो, ऐसी सरकारों के खिलाफ आंदोलन जरूरी हो जाता है जिसका लोकतांत्रिक मूल्यों पर आस्था न हो और जो जनभावनाओं के प्रतिकूल चलने पर अमादा हो. इसका मतलब यह हुआ कि अब मामला तीन कृषि कानून मात्र का नहीं रहा. इस जनविरोधी सरकार के प्रति जनता की गोलबंदी जरूरी है. आंदोलनकारियों को ऐलानिया यह कहना होगा.
  • इस बात को समझना चाहिए कि शांतिमयता का मतलब जड़ता नहीं. आंदोलनकारी नेतृत्व को आंदोलन के स्वरूप में निरंतर बदलाव के लिए सचेष्ट रहना चाहिए. हम जेपी के नेतृत्व में चले बिहार आंदोलन को याद करना चाहिए. कालेज कैंटीन में भ्रष्टाचार के विरुद्ध शुरु हुआ आंदोलन केंद्र की सत्ता परिवर्तन तक चला गया. दिल्ली जा कर आंदोलन करना संभव न हो तो अपने इलाकों में जन प्रतिनिधियों पर दबाव बनाना चाहिए कि वे इस कानून को रद्द कराये या सरकार विधानसभा-लोकसभा से इस्तीफा दें.
  • गांधी के असहयोग और सिविल नाफरमानी का प्रयोग और किस तरह से हो सकता है, वह भी आज के परिवेश में, इस पर सतत चिंतन मनन होना चाहिए. मसलन, सरकार की आमदनी का मुख्य स्रोत अब शराब और पेट्रोल की बिक्री बन गया है. शराब पीना और पेट्रोल कम से कम खरीदना आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हथियार हो सकता है. हम सब जानते हैं कि सरकार जन आंदोलनों के प्रति बेपरवाह क्यों है. वह इसलिए कि उसे आज भी हिंदू मुस्लिम कार्ड पर अपार विश्वास है. हम सांप्रदायिक सौहार्द बना कर सरकार के मंसूबों पर पानी फेर सकते हैं. और यह सब करना किसी भी तरह से राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में नहीं आ सकता.
  • कृषि कानून की वापसी कृषि व्यवस्था को बनाये रखने के लिए जरूरी है. लेकिन हमे यह समझना होगा कि देश में लोकतंत्र रहेगा तभी किसी भी तरह के आंदोलन की आजादी रहेगी. इसलिए लेकतंत्र को बचाना परमावश्यक है और लोकतंत्र का मूल है अभिव्यक्ति की आजादी. इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी पर हुए हर तरह के हमले के खिलाफ हर आंदोलन को अपने एजंडा में शामिल करना होगा. आंदोलन के समर्थन में उठी आवाजों को कुचलने की साजिश को नाकाम करना हर आंदोलन के एजंडे में शामिल रहना चाहिए.
  • इस बात को समझना चाहिए कि कृषि कानूनों की वापसी महत्वपूर्ण मांग होने के बावजूद कृषि व्यवस्था के संकट को खत्म करने में नकाफी है. कृषि व्यवस्था का असली संकट यह है कि अभी भी कुछ राज्यों को छोड़ लैंड रिफार्मस का काम अधूरा है. सिंचाई सुविधा अभी भी नकाफी है. हमे इस सवाल पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि क्या बैंक कर्ज, कर्ज माफी, दिहाड़ी श्रमिक, बड़े पैमाने पर मशीन, रासायनिक खाद, कीटनाशक व सरकारी सपोर्ट प्राईस के बगैर किसानी जीवित नहीं रह सकती?
  • और अंत में, हमे इस तथ्य को समझना होगा कि यह सरकार और केंद्र में सरकार बनाने वाली पार्टी तभी आंदोलनकारियों की मांग को तव्वजो देगी जब उसे लगेगा कि वह अपना जनाधार खो रही है. जनता अगले चुनाव में उसे वोट नहीं देगी. अब व्यापक जन भागिदारी और देशव्यापी आंदोलन का दावा करने के बावजूद बंगाल चुनाव में भाजपा जीत जाती है, तो यह आंदोलन के खिलाफ जायेगा. सिर्फ बंगाल चुनाव नहीं, आने वाले हर चुनावों में उन्हें पराजित करना होगा. इसके लिए अभी से गोलबंदी करनी होगी. ऐसा न हो कि तीन कृषि कानूनों का तो किसान विरोध करें, लेकिन चुनाव के वक्त जाति और सांप्रदायिकता के प्रभाव में आकर वोट उन्हें ही जाकर दे आयें. उन्हें फिलहाल तो यही लग रहा है कि किसान भले ही कृषि कानूनों के विरोधी हैं, वोट तो चुनाव के वक्त उन्हें ही देंगे.