पिछले दो साल से मुख्य धारा की मिडिया इस बात को प्रचार करने मे व्यस्त है कि बंगाल मे तृणमूल का विकल्प अगर कोई है तो वह भाजपा। लेकिन वास्तविकता क्या है इसे समझने की जरूरत आज बहुत ज्यादा है। 1996 मे कांग्रेस तोड़कर जब ममता ने तृणमूल बनाया, तब वह मंत्री भी नही थी। उन्होंने यह काम आरएसएस के मदद के चलते करने की हिमाकत की। फिर वे भाजपा के साथ चुनावी समझौता कर चुनाव लड़ी। चुनाव के बाद वह अटलजी के सरकार मे मंत्री भी रही।
इस दौरान 2002 मे गुजरात चुनाव में नरेंद्र मोदी की सरकारी बनी, तो उन्होंने मोदी जी को गुलदस्ता भेट किया। यह सिलसिला काफी दिन तक चला। सिर्फ बीच मे कांग्रेस के साथ गठबंधन किया, लेकिन 2006 के बिधानसभा चुनाव में हारने के बाद फिर भाजपा का हाथ थाम लिया। इस दरम्यान संघ की पत्रिका पांचजन्य में संघ प्रमुख ने उन्हे साक्षात दुर्गा भी कहा और ममता ने आर एस एस को असली देशप्रेमी कहा। बहरहाल, यह और खुल के सामने आया सिंगुर आन्दोलन के दौरान। अमरीकी उप दूतावास की मौजूदगी मंे सत्रह विभिन्न राजनीतिक दल और धार्मिक संगठन बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार के खिलाफ एकजुट होकर आन्दोलन मे शामिल हूए। इस मोर्चे में खुले आम एक तरफ भाजपा के साथ संध और अल्पसंख्यकों के धर्म गुरु भी शामिल थे और दूसरी तरफ माओवादी भी थे। इन सब के साथ मिडिया भी जुट गया वामपंथियों के खिलाफ प्रचार में। आम जनता इस नकारात्मक प्रचार में उलझ गयी। इसके साथ साथ कुछ वामपंथी नेताओं की दादागिरी और दुव््र्यवहार भी कुछ हद तक जिम्मेवार है।
2011 के बाद से ही ममता का एक ही उद्देश्य था, किस तरह से संघ का विकास हो। एक तरफ उन्होने सरकारी जमीन, खासकर ग्रामीण क्षेत्र के, संधियों को कब्जा करने दिया, दुसरी ओर अल्पसंख्यकों की खुलेआम तुष्टिकरण करने मे कोई कसर नहीं छोड़ी। जिसके चलते आम हिन्दुओं मे अल्पसंख्यक विरोधी मानसिकता बढ़ने लगी। पहली बार बंगाल में राम नवमी के दिन खुलेआम हथियार के साथ जुलूस निकला। साथ साथ एक और काम बखूबी उनकी पार्टी ने किया । गाँव और शहर में वामपंथियों पर खुलकर आक्रमण होने लगा। चुन- चुन कर वामपंथी सदस्य और समर्थकों को निशाना बनाया गया। पुलिस द्वारा उन्हें धमकाया जाने लगा, झूठे केस मे गिरफ्तार किया जाने लगा। ऐसे हजारों की संख्या मे वाम सदस्य समर्थक को निशाना बनाया गया। लोग गाँव छोड़कर भागने लगे, नहीं तो हजार लाख का जुर्माना देकर गांव में रहने की इजाजत मिलती थी। सीपीआइएम बिधायक सुशांत घोष को झूठा केस मे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। तीन साल बाद उन्हे सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली, लेकिन जिला मे जाने पर रोक लगा दिया गया। अभी हाल ही मे सुप्रीम कोर्ट ने वह आदेश भी वापस ले लिया। इस दरम्यान भाजपा वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई तो दूर मदद किया गया वह भी प्रशासन से। पीड़ित लोगों ने भाजपा के शरण में बचने की कोशिश की।
यह सब आपस की तालमेल से किया गया, ताकि भाजपा को राजनीति करने का जमीन मिले। बदले में भाजपा की सरकार ने तृणमूल नेताओं, जैसे मुकुल राय, शुभेन्दू अधिकारी, अर्जुन सिंह और तो और ममता का भतीजा अभिषेक बनर्जी के खिलाफ 2013 से चल रहे आर्थिक अपराध के मामले को ठंडा रखा। कुछ नेता दिखाने के लिए गिरफ्तार तो किये गये, मगर चार पांच साल में एक भी चार्ज शीट दाखिल नहीं हुआ। जो नेता कैमरे के सामने घूस लेते हुए दिखाई दिये, उनमे से आधे अभी भाजपा में शामिल हंै, और ऐसा सुनने में आता है कि चुनाव के बाद बाकी भी भाजपा में शामिल होगें गिरफ्तारी से बचने के लिए।
लेकिन खेल पलट गया करोना काल में। बेरोजगारी और भुखमरी से जूझते लोगों के बीच वामपंथियों को राहत के साथ पहुचते ही फिर से लोगों मंत्री उम्मीदें जगी। इतने दिन से मीडिया का बनाया हुआ खबर कि वामपंथ समाप्त हो गया, वामपंथियों का कोई भविष्य नहीं, प्रचार के विपरीत कोने- कोने में मुसीबत की घड़ी में सिर्फ वामपंथी ही सामने दिखे. इसके साथ सच्चाई यह भी है कि वामपंथी नेतृत्व के साथ साथ छात्र युवा भी लगातार आन्दोलन करते रहे। इसका नतीजा 8 जनवरी 2019 के सामुहिक हड़ताल, 26 नवम्बर, और 8 दिसम्बर 2020 की हड़ताल की अभूतपूर्व सफलता।
इन आन्दोलन से परेशान मीडिया वाले अब भी मोम फैलाने में जुटे हुए है । यह बताना चाहते है कि चुनावी दंगल सिर्फ दो पार्टियों के बीच ही है। असल में एक तरह से ठीक ही है। दंगल दो पार्टी के बीच ही है, लेकिन यह तृणमूल और भाजपा के बीच नहीं बल्कि भाजपा और वाम मोर्चा और कांग्रेस के गठजोड़ के साथ है। तो यह सवाल उठना भी जायज है कि क्यूँ नहीं अभी यह लोग शामिल हो रहे है? इसका प्रश्न में ही उत्तर छूटा हुआ है। अगर चुनाव में वाम मोर्चा- कांग्रेस गठबंधन के साथ भाजपा का सीधा टक्कर होता है तो निश्चित है कि, तृणमूल को पिछले कई साल से समर्थन में मिला तीश प्रतिशत अल्पसंख्यक वोट वाम कांग्रेस के पक्ष में आ जाएगा। दूसरी तरफ तृणमूल के अन्दर जो थोड़ी बहुत भाजपा विरोधी शक्ति है, वह या तो वोट कांग्रेस को देंगे या फिर किसी को भी नहीं देंगे। दोनो ही हालात मे भाजपा का नुकसान तय है।
इसलिए इस तरह के पैंतरा किया जा रहा। वोटों का जितना विभाजन होगा उतना ही फायदा भाजपा को होगा। एक तरफ भाजपा की ओर से जहाँ असाउद्दीन ओवैसी का मिम को उतारा जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ ममता बंगाली बिहारी विभाजन करने पर आमादा है। ममता के तृणमूल और भाजपा के बीच गहरा सम्बन्ध है, यह आज साफ हो चुका है। और वास्तविकता में वामपंथियों के साथ ही भाजपा का मुकाबला है। इसे मिडिया स्वीकार करे या न करे। अभी मामला फिफ्टी फिफ्टी है। अभी एक आशंका और भी है, इस बीच दंगा न हो जाए, जिसकी सम्भावना को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन वामपंथी ताकत अभी और मजबूत हो रहा है। हर एक प्रान्त में वामपंथियों के नेतृत्व में रोजमर्रा की मांग, जैसे रोजी-रोटी, रोजगार, महिलाओं की सुरक्षा, आदि प्रमुख है, जबकि तृणमूल और भाजपा का मुद्दा है हिन्दू मुस्लिम, और कौन नेता कितना कमाया है उस पर बहस। और इसलिए मिडिया में भी बहस का मुद्दा हिन्दू मुस्लिम ही है, और नहीं तो कौन नया नेता तृणमूल से भाजपा मे शामिल हुआ।