कोर्ट ने जब एमजे अकबर मानहानी केस में प्रिया रमानी को बरी किया और केस को ही खारिज कर दिया, तो प्रिया रमानी का हंसता हुआ प्रसंन्न चेहरा टीवी स्क्रीन पर फ्लैश होने लगा. लोगों को उसकी प्रसंन्नता पर आश्चर्य हुआ. वे उसकी खुशी के कारण ढ़ंूढने लगे. सबसे पहला कारण तो यही रहा होगा कि लंबे समय तक दोहरी मानसिक यातना झेलती हुई एक महिला को कोर्ट की परेशानियों से मुक्ति मिल गयी. खुशी का दूसरा कारण कोर्ट द्वारा उसके इस कदम की सराहना की गयी. कोर्ट के अनुसार आम तौर पर महिलाएं अपने साथ होने वाले यौन प्रतारणा को छुपा जाती हैं. लेकिन प्रिया रमानी ने अपनी इस पीड़ा को व्यक्त कर अपना ही नहीं, पूरी नारी जाति को ताकत दी है. उसने अपनी कठिनाईयों को प्रकट कर न्याय पाने और बराबरी के अपने अधिकार को प्रतिष्ठित किया. प्रसंन्नता का तीसरा और सबसे प्रमुख कारण यह रहा कि रमानी को न्याय तो मिला, साथ ही साथ एमजे अकबर जैसे पद और प्रतिष्ठा के मद में चूर व्यक्ति के काले चरित्र का भी पर्दाफाश हुआ. कोर्ट ने रमानी को न्याय देते हुए यह बात स्वीकार की.

कहानी शुरु होती है 1993 में जब एमजे अकबर एक प्रतिष्ठित अखबार के संपादक थे. उन्होंने प्रिया रमानी को अपने अखबार के काम में लगाने के पहले एक साक्षात्कार के लिए अखबार के दफ्तर में नहीं, बल्कि होटल के एक रूम में बुलाया. मदिरापान कर भौंड़े हिंदी फिल्मी गीत सुना कर उनका यौन शोषण करने की कोशिश की. उस समय प्रिया किसी तरह उसके चंगुल से बच निकली. अखबार में नियुक्ति के बाद भी वह अकबर से बचती रही. एमजे अकबर अखबार को अपना साम्राज्य समझते थे और वहां काम के लिए आने वाली हर लड़की को अपने हरम की औरत की तरह देखते थे. उनके इस दृष्टि की शिकार कई अन्य लड़कियां भी हुई और मौन रहीं. प्रिया ने तो अपने इस उत्पीड़न की कहानी ‘वोग इंडिया’ पत्रिका में लिखा भी, लेकिन बिना अकबर का नाम लिये. जब 2018 में मीटू की लहर भारत में चली तो उसमें सोशल मीडिया में अकबर के नाम को उजागर करते हुए अपने उत्पीड़न की कहानी कही. अकबर की शिकार दूसरी लड़कियां भी आगे आयी और मुखर हुई.

एक सप्ताह तक अकबर इन आरोपों के बचाव की रणनीति बनाते रहे और अंत में अपने मानहानी का केस लेकर कोर्ट पहुंच गये. तब तक वे भारत भाजपा में शामिल हो चुके थे, राज्यसभा के सदस्य तथा भाजपा सरकार में मंत्री भी बन चुके थे. प्रतिष्ठा बड़ी थी. इस पर किसी तरह का आंच स्वीकार नहीं था. मंत्री पद से इस्तीफा तो दिया, लेकिन राज्यसभा के सदस्य बने रहे. एक डिजिटल पत्रिका में मोदीजी का गुणगान करते रहे. लेकिन कोर्ट ने प्रिया के मार्फत ही सही अकबर के कारनामों को जाना.

भारत में कामकाजी महिलाओं को अक्सर यौन उत्पीड़न की घटनाओं का सामना करना पड़ता है. इस तरह की कई घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं जो तथाकथित प्रतिष्ठित और उच्च पदाधिकारियों के द्वारा ही हुए हैं. लेकिन किसी में भी अपराधी को कोई सजा नहीं मिली है. उदाहरण के लिए 1978 का मथुरा बलात्कार कांड, जिसमें पुलिस वाले को अपराधिक आरोप से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने मथुरा को न्याय नहीं दिया. 1988 में आईएएस अधिकारी रूपम देवल बजाज द्वारा तात्कालीन पुलिस प्रमुख केपीएस गिल पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने पर भी सुप्रीम कोर्ट ने सजा नहीं दी. 1990 में हरियाणा के पुलिस अफसर राठौर ने जब 14 वर्ष की टेनिस खिलाड़ी के साथ बलात्कार किया तो लड़की तथा उसके परिवार की शिकायत के बावजूद राठौर का कुछ नहीं बिगड़ा. धमकियों से डर कर लड़की ने आत्महत्या कर ली. इसके बाद तो कार्ट की बहुत आलोचना होने लगी, तब 2016 में इस केस के अपराध में राठौर को छह महीने की सजा सुनायी गयी जिसे वह पहले ही भुगत चुके थे. 2013 में गोवा के एक होटल के लिफ्ट में एक पत्रिका के संपादक तेजपाल द्वारा डिजिटल रेप का आरोप लगा. अभी वे गोवा की जेल में हैं.

इस तरह प्रिया रमानी, रेबेका जाॅन को एमजे अकबर के मानहानी केस में न्याय मिला तो एक आशा बंधती है कि आगे से नौकरीपेशा औरतों की स्थिति में सुधार आयेगा. साथ में काम करने वाली महिला को पुरुष सम्मान देंगे. यौन उत्पीड़न मामलों में बतौर अधिकार को ध्यान में न रख कर कोर्ट उनके अपराध का संज्ञान लेगी और सजा देगी. हालांकि सबसे जरूरी तो है स्त्री के बारे में भारतीय समाज की दृष्टि में बदलाव.