कृषि कानून को लेकर चल रहा ऐतिहासिक आंदोलन, महापंचायतों में उभरती भीड़, हर वक्त बेरोजगारी, महंगाई, बढ़ते गैस और पेट्रोल का रोना, लगता है जैसे समाज का हर तबका भाजपा से तंग आ चुका है. छोटे कारोबारी और व्यापारी बंद आयोजित कर रहे हैं. युवा बेरोजगार सड़कों पर उतर नारे लगा रहे हैं. जिधर देखों भाजपा के खिलाफ आक्रोश और गुस्सा. फिर भाजपा को वोट कौन जा कर दे आता है? भारतीय लोकतंत्र ने एक बार फिर हम सबको मौका दिया है कि यदि हम वास्तव में बेरोजगारी और पेट्रोल की बढ़ती कीमतों से, तीन कृषि कानूनों और सत्ता के तानाशाही रवैये से आक्रांत हैं, तो आगामी पांच राज्यों के होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा को करारी शिकस्त दें. उन्हें स्पष्ट कहें कि आप जिन आर्थिक नीतियों पर चल रहे हैं, वह विनाशकारी है और हम आपको खारिज करते हैं.
लेकिन यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो इसका अर्थ यह होगा कि हमें उनकी सांप्रदायिक राजनीति पसंद है. हमारे लिए रोटी से ज्यादा जरूरी है राम. स्कूल, कालेज, अस्पताल से जरूरी है राम मंदिर. आर्थिक पिछड़ेपन से ज्यादा महत्व रखता है हिंदू राज का खोखला, क्योंकि हिंदू राज में भी मुट्ठी भर अदानियों और अंबानियों का ही राज होगा, नारा. पिछले करीबन दो वर्षों से देश अशांत है. नागरिकता संशोधन कानून, तीन कृषि कानूनों, बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई का सड़कों पर उतर कर लोग विरोध कर रहे हैं. कृषि कानूनों के खिलाफ अभूतपूर्व किसान आंदोलन हो रहा है. लोगों को इस बात का एहसास हो रहा है कि भाजपा चुनावी लाभ के लिए सांप्रदायिक राजनीति कर रहीे हैं. दिल्ली में भीषण दंगे करवा कर भी भाजपा विधानसभा चुनाव जीत नहीं पायी. तो क्या हम माने कि राजनीति बदल रही है?
एकबारगी इस पर यकीन नहीं होता. भाजपा को तो इस पर तनिक भी यकीन नहीं. वह अपने पुराने फार्मूले पर ही आगे के पाच विधानसभा चुनाव लड़ने जा रही है. केरल और तमिलनाडु में उसके लिए बहुत उम्मीदें नहीं. पुंडुचेरी एक छोटा सा राज्य है. उपरोक्त बातों की परीक्षा असम और बंगाल में होगी. दोनों राज्यों में सामाजिक समीकरण बेहद उलझन भरे हैं. असम में संघर्ष का एक आयाम स्थानीय निवासी और बहिरागतों का है, तो दूसरा आयाम बहिरागत मुसलमान और हिंदू हैं. बाहर से आये मुसलमानों के तो हिंदू खिलाफ हैं, लेकिन बाहर से आये हिंदुओं के वे खिलाफ नहीं, जबकि असम के मूलनिवासी बहिरागत हिंदू और मुसलमान, दोनों के खिलाफ हैं. भाजपा ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को ही वहां अपनी राजनीति का आधार बना रखा है.
बंगाल में बंगाली और गैर बंगाली का द्वंद्व है. हिंदू-मुसलमानों के बीच भाजपा वैमनष्य बढ़ाने की तिकड़मों में लगी है. विश्वकवि रवींद्र और सुभाष राजनीति के सामान बना दिये गये हैं. और भाजपा का आत्मविश्वास इस कदर बढ़ गया है कि पिछले चुनाव में चंद सीटें जीतने वाली भाजपा बंगाल में भगवा ध्वज लहराने का दावा कर रही है. संघर्ष तो त्रिकोणात्मक होने वाला है जहां एक तरफ भाजपा, दूसरी तरफ कांग्रेस-वाम गठबंधन और तीसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस है. इस बात के कायास लगाये जा रहे हैं कि त्रिकोणात्मक संघर्ष का लाभ तृणमूल को ही होगा. कांग्रेस और वामदल मजबूत होकर भाजपा समर्थक वोटों को ही काटेंगे. लेकिन अभी कुछ नहीं कहा जा सकता.
वैसे, लगता है कि भाजपा को जमीनी हकीकत का एहसास होने लगा है, इसलिए बंगाल में आठ चरणों में चुनाव होने जा रहे हैं. केंद्रीय सुरक्षा बल का भी बड़े पैमाने पर चुनाव में लगाया गया है. भाजपा समर्थकों का कहना है कि यह सब बंगाल में निरापद चुनाव कराने के लिए किया गया है, जबकि तृणमूल और वाम दल चुनाव में गड़बड़ी की आशंका व्यक्त कर रहे हैं. इनत तमाम अटकलों पर जनता विराम लगा सकती है. बस उसे यह तय करना है कि उसे राम चाहिए या रोटी.