भारतीय समाज में पुरुष को प्रधान और औरत को दोयम दर्जे का माना जाता है, जबकि मानव संतति और संस्कृति को बढ़ाने में दोनों की समान भागिदारी होती है।
मुझे कुछ स्मरण नहीं था कि मैं अपने माता के गर्भ में कैसे आया । कितना सूक्ष्म था मैं । माता का गर्भ ही मेरा ठिकाना था । वहां हवा नहीं थी, कोई रौशनी नहीं थी । मेरा सूक्ष्म शरीर मांसपेशियों , प्लाज़्मा और तरल द्रव्यों में डूबा हुआ रहता था । लेकिन शुकून से था , कोई डर नहीं था मुझे वहां ।
नौ महीने बाद मेरा जन्म हुआ । रक्त और द्रव्यों से सने मेरे शरीर को दाईयों ने साफ़ किया । मेरे फेफड़े चिपके हुए थे. किसी ने मेरे नितम्ब में दो चार थप्पड़ लगाये, मेरी चीख निकल गई और प्रथम बार मेरे नाक में जीवनयुक्त वायु प्रवेश किया।
माँ ने जल्दी से मुझे अपने स्तनों से लगा लिया। पहली बार मैंने स्तनपान किया। पहली बार दूध का स्वाद कैसा होता है जाना । मेरे माता पिता खुश थे । मेरे पैदा होने की ख़ुशी में मेरा पूरा परिवार शामिल था । बधाइयां और मिठाईया बांटे जा रहे थे।
आज मैं इस पहेली को समझने की कोशिश कर रहा हूँ की जिस स्त्री शरीर ने मुझे जन्म दिया, वही सिर्फ मेरी वासना पूर्ति का साधन कैसे बन गया। हम अपने जीवन में कई दफा बेमतलब किसी को भी स्त्रीवाचक गंदे गालियों से नवाज देते है। अपना गुस्सा एक स्त्री के जननांग पर ही क्यों ?
अगर माँ नहीं होती तो शायद हमारा वजूद भी नहीं होता। फिर क्यों स्त्रियों के साथ अपमान, हिंसा, अमानवीयता होती है? जिस्मफरोशी व मानवतस्करी क्यों होती है? स्त्रियों के लिए मानव समाज में बंदिशे आखिर क्यों ?
एक ‘स्त्री’ के कई रूप होते हैं. माँ , बहन , चाची , मामी , ताई , दादी , नानी , दोस्त , संगनी , बेटी , बहु। इन सभी चरित्रों में आपको प्यार , दुलार , स्नेह , अपनापन, सुरक्षा आदि निहित मिलेगा। फिर भी इनको ही गालियों का पर्याय बनाना क्या उचित है ?
उन्हें दोयम दर्जे का समझना या निर्बल अबला मान कर उंसका अपमान करना, उसके साथ क्रूरतापूर्वक बलात्कार करने के बाद निर्मम हत्या कर देना जैसे जघन्य व्यवहार कोई कैसे कर पाता है?
पुरुष प्रधान समाज के दिल में स्त्री के लिए क्या रत्ती भर सहानुभूति-संवेदना नहीं होती है ? स्त्रियों के प्रति हमारी मानसिकता कब बदलेगी?