झारखंड में एक बार फिर भाजपा और स्थानीय मीडिया ‘पत्थलगड़ी’ को लेकर वितंडाबाद खड़ा करने की कोशिश कर रहा है. भाजपा के जमाने में करोड़ों की जमीन मालेमुफ्त समझ कर सरकारी संतो को दे दी गयी. अब झारखंडी जनता उसका ‘पत्थलगड़ी’ कर अपने परंपरागत अंदाज में विरोध कर रही है, तो उनकी कार्रवाई को राष्ट्रविरोधी बताने की चेष्टा हो रही है. यह सवाल किसी ने नहीं उठाया कि झारखंड की सार्वजनिक जमीन को बेदर्दी से क्यों लुटाया भाजपा सरकार ने? किसी को आध्यात्म के नाम पर दुकानदारी करनी है तो खुले बाजार में जमीन खरीदें जो पांचवी अनुसूचि क्षेत्र के बाहर है. जल, जंगल, जमीन की लूट का तो झारखंडी जनता विरोध करेगी ही करेगी.
यह बात सभी जानते हैं कि झारखंड में पिछली भाजपा सरकार ने बड़े पैमाने पर गैर मजरुआ जमीन की लूट की और उसे लैंड बैंक में डाला. बहुत अधिक तकनीकि बातों में न जा कर हम इसे इस रूप में समझ सकते हैं कि जो जमीन किसी व्यक्ति विशेष की नहीं हैं और जिसका सार्वजनिक उपयोग हो रहा है, वह गैर मजरुआ जमीन है. लेकिन गैर आदिवासी क्षेत्र और आदिवासी क्षेत्र में इसका अर्थ भिन्न हो जाता है. आदिवासी समाज में स्वशासन की पुरानी परंपरा में इस तरह की जमीन मुंडा राजाओं या मांझी परगनैत की होती है, जबकि गैर आदिवासी इलाकों में जमींदार के कब्जे में मानी जाती थी जो सरकार द्वारा ही खड़े किये गये थे. अब जब जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ तो गैर मजरुआ जमीन की मालिक एक तरह से सरकार हो गयी, लेकिन आदिवासी इलाकों में दो तरह की गैर मजरुआ जमीन थी. एक तो आम गैर मजरुआ, जो सार्वजनिक उपयोग में आता था और दूसरा मुंडा राजाओं का. इसलिए गैर मजरुआ होते हुए भी उसकी रशीद कटती थी. भाजपा सरकार ने खतिहान को आॅनलाईन कर बड़ा घपला किया और गैर मजरुआ जमीन को लैंड बैंक में डाल दिया. उन जमीनों की रशीद कटनी बंद हो गयी. और उस जमीन की बंदर बांट कर रही है.
झारखंड के कई जिले पांचवी अनुसूचि के अंतर्गत आते हैं. वर्तमान संदर्भ में इसका अर्थ यह हुआ कि उस इलाके की जमीन का अधिग्रहण आप ग्रामसभा की अनुमति से ही कर सकते हैं. अब स्कूल के नाम पर, सड़क, पुल के नाम पर, ग्रामीण विकास की अन्य योजनाओं के नाम पर सरकार जमीन का अधिग्रहण करती रही है. लेकिन इसके लिए भी ग्रामसभा की अनुमति एक कानूनी अनिवार्यता है. यह बात तो कोई भी समझ सकता है कि विकास योजनाएं यदि जनता के लिए ही है जो फिर जनता की रजामंदी जरूरी होनी चाहिए. लेकिन जनता की भलाई के नाम पर भाजपा सरकार ने सरकारी संतो को मुफ्त में करोड़ों की जमीन आवंटित कर दी. श्री श्री रविशंकर आश्रम से जुड़ी किसी संस्था के लिए हवाई अंड्डा के करीब पांच एकड़ जमीन और नामकुम में ही दूसरे सरकारी संत बाबा रामदेव के आश्रम के नाम पर.
योग और आध्यात्मिक उत्थान उनके लिए जरूरी है जो बिना श्रम खाते हैं और दिन रात छल प्रपंच में लगे रहते हैं. श्रमशील और ईमानदार आदिवासी जनता न भोग लिप्सा में संलग्न है और न उन्हें योग की जरूरत है. ग्रामीण जनता का कहना है कि उस जमीन का सार्वजनिक उपयोग होता था और उन्होंने सरकार से मांग की है कि उस जमीन का आवंटन रद्द किया जाये. मीडिया और भाजपा के नेता अब इस भीषण लूट को छुपाने के लिए ‘पत्थलगड़ी’ का हौवा खड़ा कर रहे हैं और हेमंत सरकार को पत्थरगड़ी का समर्थक बता रहे हैं. पहले तो स्पष्ट हो जाना चाहिए कि पत्थरगड़ी कोई अपराध नहीं, आदिवासी समाज की एक सांस्कृतिक परंपरा है और यदि इस परंपरा का उपयोग जमीन लूट के खिलाफ होता है तो कोई अपराध नहीं. हां, आंदोलन शांतिमय रहना चाहिए और कोई भी यह नहीं कह सकता कि आदिवासी जनता ने पत्थलगड़ी के दौरान किसी तरह की हिंसात्मक कार्रवाई की है.