पूंजीवादी व्यवस्था में एक खूबी तो यह है कि यह भ्रम जाल बखूबी फैलाता है कि आप में यदि क्षमता है तो आप भी तरक्की कर सकते हैं और अदानी, अंबानी बन सकते हैं. हालांकि, यह निरा भ्रम ही है. क्योंकि 134 करोड़ की आबादी वाले देश में महज आठ - दस लोग या अधिकतम सौ दो सौ लोग आर्थिक तरक्की के उस मुकाम पर पहुंच सके हैं. लेकिन इस भ्रम जाल की वजह से आप कभी यह सोचने की मशक्कत ही नहीं करते कि अमीरी आती कैसे है? सामाजिक- आर्थिक सफलता के लिए जिस ‘श्रम’, ‘क्षमता’ और ‘बुद्धि-विवेक’ की बात कही जाती है, वह दरअसल है क्या? बस हम सामाजिक यथार्थ को समझे बगैर अपने श्रम और बुद्धि विवेक का प्रयोग कर वैसी सफलता हासिल करने में लग जाते हैं. उस सफलता को हासिल करने के लिए लिखी किताबें खूब बिकती और पढ़ी जाती है.
इसी तरह पूंजीवादी विकास का जब भी सब्जबाग दिखाया जाता है तो उसके साथ अंतरनिहित है यह भी उम्मीद कि आपको भी उस विकास की, जो दरअसल गैर बराबरी पैदा कर ही हासिल की जाती है, हिस्सेदारी मिलेगी. आप जिस समाज में रहते हैं, वह समाज भले ही उस विकास का स्वाद नहीं चख पाये, लेकिन आप चख सकेंगे क्योंकि आप दूसरे से थोड़ा ‘डिफरेंट’ / कुशाग्र हैं. इसी तरह का एक भ्रम जाल है समार्ट सिटी, एक ऐसे शहर की कल्पना जिसमें एक तिहाई हरियाली होगी, खुली सड़कें होगी, पोलो ग्राउंड होंगे, स्वीमिंग पुल होंगे, चैबीस घंटे बिजली होगी, तेज रफ्तार इंटरनेट होगा, मुकम्मल ड्रेनेज सिस्टम होगा, बजबजाती गलियां नहीं होंगी, शानदार अस्पताल और स्कूल होंगे, तकनीकि शिक्षण संस्थान होंगे. जहां सड़कों पर सभ्य नागरिक चलेंगे जो आपस में गाली गलौच नहीं करेंगे, आदि.. .आदि.
तो, मेहनतकश आबादी के ही पैसे से, उनके ही श्रम से और उनके जीवन की मूलभूत संसाधनों को छीन कर ऐसे स्मार्ट सिटी की योजना मोदी जी ने सत्ता में आने के बाद ही बनायी है और 2023 तक ऐसे सौ शहरों का निर्माण होना है. प्रक्रिया यह होगी कि कुछ मापदंडों के आधार पर हर राज्य में चुने गये बेहतरीन शहरों को या उसके एक क्षेत्र विशेष को और विकसित कर ‘स्मार्ट सिटी’ में बदल दिया जायेगा. कुल योजना तो 98000 करोड़ की है, लेकिन एक स्मार्ट शहर पर 1000 करोड़ की धनराशि खर्च की जायेगी जिसमें आधा खर्च केंद्र और आधा राज्य सरकारें वहन करेंगी. यह पैसा आसमान से नहीं टपकेगा, आम जनता पर लगाये गये विविध टैक्सों से ही सरकारी खजाने में आता है और आयेगा और वही इन शहरों के निर्माण पर भी खर्च होगा. लेकिन जब ऐसे शहर बन जायेंगे तो उसमें रहेगा कौन?
सामान्य जन तो नहीं ही रह सकते हैं, क्योंकि उन स्मार्ट सिटियों में झोपड़पट्टी की परिकल्पना अब तक नहीं की गयी है. और जिस तरह के शहरों की यह कल्पना है, उसमें बड़े बैंकर्स, कारपोरेट घरानों के दफ्तर और रिहायशी ठिकाने, टाॅप ब्यूरोक्रैट, कुछ चुनिंदे नेता आदि भी रह सकेंगे. घोषित रूप से वहां किसी के बसने की मनाही नहीं होगी, लेकिन बहुसंख्यक आबादी की यह औकात ही नहीं होगी कि वहां वह घर बना पाये या किराये लेकर रह पाये. हां, तमाम तकनीकि विकास के बावजूद भारतीय समाज में गृह सेविकाओं और सफाईकर्मियों की जरूरत बनी रहेगी और ऐसे लोग इस शहर में शायद प्रवेश कर पाये, लेकिन वहां रहने की कल्पना तो नहीं कर सकते. दरअसल, विकास के नाम पर शहरों में ही अब ऐसे इलाके विकसित किये जाने की योजना है जहां समाज का प्रभु वर्ग, अभिजात तबका रह सके. क्योंकि परंपरागत शहर अब उनके रहने के काबिल नहीं रहा. वहां, सड़कों पर जाम, भीषण प्रदूषण, असभ्य नागरिक, रहते हैं. कानून व्यवस्था विकराल हो चुकी है. इसलिए अब उनके लिए बेहतर विकल्प बनाया जा रहा है. लेकिन यह परिकल्पना मोदी की ही नहीं, सत्तर के दशक में इसी तरह की परिकल्पना मुंबई के दो इंजीनियरों ने देखी जिसे राज्य सरकार का बाद में सहयोग मिला और नवी मुंबई अस्तित्व में आया. वही परिकल्पा मोदी के स्मार्ट सिटी की जनक है. ‘समार्ट सिटी’ यानि भारत के ही कुछ ऐसे शहर जहां रहना सिंगापुर में रहने जैसा लगे. और इसका निर्माण भी गरीब जनता को उनके मूल निवास से बेदखल कर, उनके ही पैसे से हो.
परंपरागत शहरों की बुनियाद कल कारखाने थे. चाहे वह कोलकाता हो, मुंबई हो, या मद्रास, इसलिए उन शहरों में धन्नासेठों के साथ मजदूर भी रहते थे, भले झोपड़पट्टियों में ही सही. स्मार्ट शहर डिजिटल कारोबारियो, सट्टाबाजारियों, बैंकरों का होगा, जहां मजदूरों की जरूरत ही नहीं होगी. हमें तो अपने गांव और शहरों में ही रहना है और उसे रहने लायक बनाये रखने की जिम्मेदारी भी हम पर ही है.