महागठबंधन ने पिछले विधानसभा चुनाव में सफलता की उम्मीद तो की होगी, लेकिन इतनी बड़ी जीत उनके लिए भी अप्रत्याशित ही थी. झामुमो ने वह सफलता हासिल की जो उसे इसके पहले कभी नहीं मिली थी. कां्रग्रेस को भी अच्छी खासी सीटें मिली. राजद यदि सफलता हासिल नहीं कर सकी, तो अपने अंतरविरोधों के कारण. पिछले विधानसभा चुनाव के पहले राजद के तमाम शीर्ष नेता पाला बदल कर भाजपा में शामिल हो गये. फिर भी महागठबंधन आराम से सत्ता पर काबिज हो गयी. और वजह यह कि जनता ने नेताओं से ज्यादा समझदारी से झारखंड में मतदान किया और भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दिया.
लेकिन जिस जनता ने महागठबंधन को सत्ता तक पहुंचाया, वह इस सरकार से अनेक उम्मीदें भी लगाये बैठी है. भाजपा से उसकी नाराजगी की मूल वजह यह थी कि भाजपा विकास के लुभावने वादे करके सत्ता में आयी तो थी, लेकिन उसकी नीतियां जन विरोधी थी. संथाल परगना में अदानी समूह के सामने वह जिस कदर नत मस्तक थी और जिस कदर उसने आदिवासी जनता का अपमान किया था, वह जनता नहीं भूली थी. बड़कागांव गोली कांड से वह लहूलुहान थी. खूंटी में पत्थरगड़ी आंदोलन को जिस तरह कुचलने का काम उसने किया था, उसके जख्म ताजा थे. भाजपा सरकार के ‘लैंड बैंक’ योजना को वह सार्वजनिक जमीन लूटने के प्रपंच के रूप में देख रही थी. और 65 सीटें जीतने का दावा करने वाली भाजपा इस लायक भी नहीं रही कि तोड़-फोड़ करके भी वह सत्ता पर काबिज हो जाये, जैसा कि वह पूर्व में करती रही थी.
लेकिन जिन नीतियों के खिलाफ झारखंडी जनता ने मतदान किया और महागठबंधन को सत्ता तक पहुंचाया, क्या वर्तमान सरकार की नीतियां उनसे किसी तरह भिन्न दिखायी दे रही है? यह सही है कि हेमंत सोरेन और रामेश्वर उरांव अपनी छवि बनाने में कामयाब रहे हैं. वह इसलिए कि कोरोना संकट का मुकाबला सरकार ने बेहतर ढंग से किया. आदिवासियों के लिए अलग धार्मिक कोड का प्रस्ताव सरकार ने बना कर केंद्र सरकार को भेजा. केंद्र सरकार के खनन नीति की आलोचना की. मनरेगा श्रमिकों की मजूरी बढ़ाई. खूंटी सहित राज्य के अन्य जिलों में ‘जल, जंगल, जमीन बचाओ’ आंदोलनकारियों के खिलाफ दर्ज देशद्रोह के मुकदमें व अन्य मुकदमें वापस लेने की घोषणा की. लेकिन इस बीच कई ऐसे काम भी किये, जो जनता की उम्मीदों के खिलाफ है.
- देशद्रोह वाले मामलों की वापसी उनकी पहली घोषणा थी. इस पर कार्रवाई में विलंब होता जा रहा है. सब कुछ मंथर गति से चल रहा है. समझने वाली बात यह है कि सरकार ने यह घोषणा इसलिए की क्योंकि महागठबंधन के नेताओं ने उस दमन को अपनी आंखों से देखा था. जन विरोध के आंदोलनों में हिस्सा भी लिया था. फिर इसमें इतना बिलंब क्यों? जरूरत तो इस बात की थी कि निरीह जनता पर झूठे मुकदमे दर्ज करने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई होती, लेकिन इसके उलट मुकदमों की वापसी की प्रक्रिया की जिम्मेदारी उसी ब्यूरोक्रैशी के हवाले कर दिया गया जिसने जुल्म ढ़ाया था.
- माईनिंग वाले मामले में हेमंत सरकार की बहुत वाहवाही हुई. लेकिन क्या विरोध सिर्फ कोयला खदानों की नीलामी की टाईमिंग को लेकर था, या सरकार के सामने आगे की कोई नई सोच भी थी? यह सही है कि कोयला बेचने से सरकार के राजस्व में इजाफा होगा. लेकिन क्या उससे जनता का भी कोई भला होगा? अभी तक खनन उद्योग की जो दशा और दिशा रही है, उससे यह सरकार किसी भी तरह से भिन्न नजरिया पेश कर सकी है? एक मामूली शर्त यह थी कि कोयला के निकासी के बाद खोखली जमीन को फिर से भरा जायेगा और उसे हरा भरा बनाया जायेगा? क्या ऐसा कही भी हुआ है? खनिज संपदा है तो उन पर आधारित उद्योग लगने चाहिए कि खनिज संपदा को ही बेच देना चाहिए?
- बड़े डैमों को लेकर सरकार की नीति क्या है? क्या सत्ता में आने के बाद किसी एक बड़े डैम का सरकार ने मूल्यांकन कराया? सभी डैमो को लेकर उम्मीद यह बनायी गयी थी कि उनसे विद्युत उत्पादन तो होगा ही, सिंचाई भी होगी. क्या चांडिल डैम से सिंचाई की जो उम्मीदें की गयी थी, वह पूरी हुई? ईचा डैम तो जन विरोध की वजह से बना भी नहीं, फिर कैनाल किसके कहने पर बन रहा है? आरोप यह है कि इस तरह की परियोजनाओं में सत्ता पक्ष के लोग और उनके भाईबंद ही ठेकेदारी करते हैं और इसलिए विफल योजनाओं पर ही पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है.
- और यह डोमेसाईल नीति? भाजपा को तो अपने वोटरों के अनुकूल जो लगी, वैसी नीति उसने बना दी. आप कहते हैं कि वह नीति गलत है. फिर नई संतुलित डोमेसाईल नीति सरकार क्यों नहीं बना पा रही हैं?
- क्या यह सरकार बतायेगी कि रघुवर सरकार के ‘लैड बैंक’ और उनकी ‘लैंड पुल’ में क्या फर्क है? क्या शहर के विकास का जिम्मा सरकार का होता है? शहर तो स्वाभाविक गति से विकास के साथ स्वतः बनता है. और महागठबंधन के नेताओं को यह तथ्य भी दिखायी नहीं देता है कि शहर उनके खिलाफ है? शहरी क्षेत्र भाजपा के ही आधार क्षेत्र हैं. जरूरत इस बात की है कि ग्रामीण इलाकों का विकास हो, वहां की नागरिक सुविधायें बढ़े, न की ग्रामीण इलाकों और ग्रामीण जनता की परिसंपत्ति का दोहन कर शहरों का विकास किया जाये.
सबसे अधिक खतरनाक तथ्य यह है कि भाजपा की राजनीतिक शैली का ही झारखंडी राजनीति अनुसरण कर रही है. महागठबंधन के नेताओं को यह समझना होगा कि ईसाई, अल्पसंख्यक विरोधी आंदोलन का नेतृत्व आप नहीं कर सकते. उस आंदोलन का नेतृत्व तो भाजपा ही करेगी. आप इस भ्रम में कुछ दिन रह सकते हैं कि सरना आंदोलन आपके हाथ में है. लेकिन उसका आधार तो ईसाई आदिवासी विरोध ही है. भाजपा ने उसकी यही नियति तय कर दी है. और महागठबंधन के नेता यदि उस रास्ते पर चले तो अपने ही पैरों में कुल्हारी मारेंगे. क्योंकि सरना आंदोलन आखिरकार सरना-सनातन एक है के नारे तक जायेगा.