आज की तमाम समस्याओं का ठीकरा अक्सर जनता के ही सर पर फोड़ दिया जाता है, यह कि उसे भारतीय संविधान ने असिमित अधिकार दिये हैं, लेकिन वह उसका उपयोग न करे तो इसके लिए कौन जिम्मेदार? उसे सरकार चुनने का अधिकार दिया गया है, लेकिन वह अपने मताधिकार का सही उपयोग नहीं करती और सत्ता गलत हाथों में सौंप देती है. कुछ बुद्धिजीवी तो यहां तक कह बैठते हैं कि लोकतंत्र अनपढ़ों के लिए नहीं.
लेकिन भारतीय जनता ने हमेशा इस भ्रम को नकारा है. और पढ़े लिखे बुद्धिजीवियों से ज्यादा बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है. आखिरकार संघी राजनीति और पूरी दुनिया में प्रहसन का पात्र बने गये विदूषक जैसे प्रधानमंत्री का समर्थन कोन करता है. पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग ही न? अनपढ़ जनता ने तो हमेशा संकट के समय बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है. इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ वोट दिया और उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया.
मोदी भी पहली बार सबसे कम वोट प्रतिशत से प्रधान मंत्री बने थे. उनके प्रति उम्मीदों से भरी जनता ने दूसरी बार उन्हें कुछ ज्यादा वोट प्रतिशत से सत्ता में बनाये रखा. कई राज्यों में उनकी पार्टी की सरकार बनी. लेकिन फिर तेजी से लोकप्रियता का ग्राफ भी गिरा और लगातार विभिन्न राज्यों में भाजपा की सरकारों का पतन हो गया. राजस्थान, मध्यप्रदेश, पंजाब, दिल्ली, कर्नाटक सभी जगह तो ये हारे. अब विधायकों का खरीद फरोख्त कर कुछ राज्यों में फिर से सरकारें बना ली तो यह धोखा हुआ लोकतंत्र के साथ.
सबसे महत्वपूर्ण नजीर तो दिल्ली ने पेश किया जो एक जमाने में भाजपा का गढ़ था. ‘आप’ को हराने के लिए पिछले वर्ष सुनियोजित दंगे करवाये गये. बावजूद इसके भाजपा बुरी तरह हारी. जबकि सभी यह मान कर चल रहे थे कि शहीनबाग और सांप्रदायिक दंगों की वजह से हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में होगा और वहां वह आप को इस बार हरा देगी. लेकिन यह आकलन बुरी तरह गलत साबित हुआ.
इसलिए हम मान कर चलें कि झारखंड के मधुपुर सीट के उपचुनाव सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा हारने जा रही है. भाजपा के शीर्ष नेता भी इस तथ्य को जानते हैं, इसलिए केरल और तमिलनाडु में तो उन्होंने ज्यादा शक्ति भी नहीं झोंकी, लेकिन बंगाल और असम में पूरी ताकत झोंक दी. देश का प्रधान मंत्री और गृहमंत्री इस तरह किसी पार्टी विशेष के लिए चुनाव प्रचार करे, यह दुर्भाग्यपूर्ण है. यह भविष्यवाणी करे कि चुनाव के बाद दूसरी पार्टी के विधायक उनती तरफ चले आयेंगे, यह तो खुल्लम खुल्ला दल बदल कानून का माखौल उड़ाना ही है, वह भी प्रधानमंत्री और गृहमंत्री जैसे संवैधानिक पदो पर बैठे लोगों द्वारा.
असली संकट यह है कि तमाम राजनीतिक दलों के चेहरे घिस पिट कर एक हो चुके हैं. झंडे बैनर भले ही अलग हों, उनके अंतरंग एक जैसे हैं. उनके पास विकास का कोई नया माॅडल नहीं. विपन्नता और विषमता जैसे सवालों से निपटने का कोई अलग रोड मैप नहीं. और जनता को उन्हीं में से किसी को चुनना है. वह एक चक्रव्यूह में फंस चुकी है. उसे अब सरकार चुनना भी है और उस पर नजर भी रखनी है.