आज तथाकथित विकास के नाम पर खुदा बख्श लाइब्रेरी पर गहरा खतरा है. बता दें कि नीतीश कुमार सरकार की योजना के अनुसार पटना में कारगिल चैक से पीएमसीएच होते हुए एनआईटी मोड़ तक एक एलिवेटेड कॉरिडोर बनना है, जिसको पूर्ण करने के लिए 130 वर्ष पुरानी विरासत खुदा बख्श लाइब्रेरी के एक बड़े हिस्से हो धराशाही कर देना चाहती है सरकार.
एक तरफ नीतीश कुमार सरकार राज्य में इतिहास और धरोहर को सहेजने की बात करती है लेकिन दूसरी तरफ वे लोकप्रिय धरोहर लाइब्रेरी को नष्ट करने की योजना बना रही है. विकास के नाम पर जीवंत और सतत विरासत और इतिहास को ध्वस्त कर नवीन विकास किन लोगों के लिए है, जबकि सही मायनों में यदि हम देखें तो जिन आम नागरिकों के विकास की बात की जा रही है वे भी सरकार के इस फैसले के खिलाफ खड़े हैं. कलाकार, साहित्यकार, बुद्धिजीवी और रंगकर्मी से लेकर छात्र तक लगभग हर वर्ग के लोग अपनी विरासत को खोकर हर्गिज इस तरह का विकास नहीं चाहते हैं, जिसमें वे अपनी धरोहरों और इतिहास को खोते चले जाएं.
दरभंगा निवासी अफरोज खान का कहना है, हम अपने जीवन में अत्यंत जतन के पश्चात भी बच्चों के लिए एक छोटा पुस्तकालय शुरू नहीं कर पाएं हैं और इस प्रकार के ऐतिहासिक दुर्लभ बड़े पुस्तकालयों पर हमला पाठकों की आत्मा पर हमला है. हम पढ़ने लिखने का शौक रखने वाले लोग हैं. इस पुस्तकालय में ठोस आधार सम्बन्धी पुस्तकें मौजूद हैं. हम सभी नौजवान, छात्र, और विभिन्न सामाजिक सरोकारों से जुड़े लोग साहित्यक विरासत की सुरक्षा चाहते हैं.
दुनिया भर में चर्चित खुदा बख्श लाइब्रेरी की इमारत 1888 में बन कर तैयार हुई. 29 अक्टूबर 1891 को यह लाइब्रेरी आम लोगों के लिए खोल दी गई. इसका नाम ‘ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी’ रखा गया. लेकिन खुदा बख्श के सम्मान में इसका नाम बाद में बदल कर ‘खुदा बख्श ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी’ कर दिया गया. जिसको लोग ‘खुदा बख्श लाइब्रेरी’ भी कहते हैं.
इस लाइब्रेरी में अरबी, फारसी, तुर्की आदि भाषाओं में हाथों से लिखी हुई लगभग 4000 दुर्लभ किताबें हैं. इसके अलावा अरबी, फारसी और अंग्रेजी भाषाओं में कई प्रिंटेड किताबें भी हैं. यहां सबसे पुरानी हिंदी डिक्शनरी भी मिल सकती है, जोकि मिर्जा खान बिन फखरुद्दीन मोहम्मद द्वारा लिखी गई थी.
इस लाइब्रेरी में कई ऐसी किताबें हैं जो कहीं और नहीं हैं. एक किताब है जिसका नाम है- तारीख-ए-खानदान-ए-तिमूरियाह, जो कि हाथ की लिखी हुई किताब है. इस किताब की दुनिया में केवल एक ही कॉपी है और वह यहीं इसी लाइब्रेरी में है. यह किताब मुगल बादशाहों से संबंधित है. इसमें शानदार चित्रकारी की गई है जो कि मुगल काल में होने वाली बेजोड़ चित्रकारी का एक नमूना है. इस लाइब्रेरी में रूमी की किताबें, फिरदौसी का शाहनामा, दीवान-ए-हाफिज, जिसमें जहांगीर की दस्तखत है, जैसी कई किताबें हैं. यहां रखी गई कई किताबों का जिक्र तो यूनेस्को की ‘मेमोरी ऑफ वर्ल्ड रजिस्टर’ में भी है. इस समय इस लाइब्रेरी में फारसी, अरबी, उर्दू, तुर्की आदि भाषाओं में हजारों किताबें हैं.
तमाम देशों से पाठकगण तो आते ही हैं, हम देखेंगे कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, अब्दुल कलाम जैसे महापुरुषों ने भी इस लाइब्रेरी का दौरा किया है.
इसका निर्माण जमींदार परिवार से जुड़े खुदा बख्श खान ने 4,000 पांडुलिपियों के साथ शुरू की थी, जिनमें से लगभग 1,400 पांडुलिपियां उन्हें अपने पिता से मिली थीं. किताब पढ़ने के शौकीन खुदा बख्श खान का जन्म अगस्त 1842 में सीवान जिले में हुआ था. उनके पूर्वज मुगल वंश में सेवारत थे, जहां वे किताबों को सहेजकर रखने और मुगल साम्राज्य के लिखित रिकॉर्ड रखते थे. यह लाइब्रेरी पहले खुदा बख्श का आवास हुआ करती थी, जिन्हें उन्होंने बाद में पटना के लोगों को दान में दिया. इसके साथ ही उनकी पांडुलिपियों के निजी संग्रह, लिखित दस्तावेज, ताड़ के पत्तों पर लिखे दस्तावेज और अन्य सामग्रियां भी दान में दे दी. यह लाइब्रेरी वैश्विक धरोहर है. यहां इस्लामिक पांडुलिपियों का देश में सबसे बड़ा संग्रह हैं.
वर्तमान समय में लाइब्रेरी में लगभग 21,000 पांडुलिपियां और अरबी, पारसी, उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी भाषाओं की 2,50,000 से अधिक किताबें और जर्मन, फ्रेंच, पंजाबी, जापानी और रूसी भाषा में भी कुछ किताबें मौजूद हैं. इन पांडुलिपियों में से एक तारीक-ए-खानदान-तिमूरिया का उल्लेख यूनेस्को के मेमोरी ऑफ वर्ल्ड रजिस्टर में भी दर्ज हैं. साल 1969 में भारत सरकार ने संसद अधिनियम के जरिये इस लाइब्रेरी को राष्ट्रीय महत्व स्थल के तौर पर चिह्नित किया था.