यह वायरस प्राकृतिक है या कृत्रिम इस बहस से पूर्व यह सोचना शुरू करें कि इसके माध्यम से हम अपनी जीवन पद्धति बदलने की ओर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। मनुष्य और मनुष्य के बीच दूरी अनिवार्य, समाजिक संबंध समाप्ति की ओर, हालात यहां तक कि हम अपने परिवार के लोगों के अंतिम संस्कार से भी बच रहे हैं। स्थानीय बाजार छोड़ कर हम ऑनलाइन सभी वस्तुओं को मंगाने की प्रक्रिया की ओर बढ़ रहे हैं. विश्व के शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा संचालित डिजिटल वर्ल्ड हमारा स्वागत करने को तैयार खड़ा है. हमारे बैंक धीरे धीरे समाप्ति की ओर बढ़ रहे हैं और नई तरह की करेंसी, जिन्हें क्रिप्टोकरंसी कहा जाता ह,ै अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यही बड़े संपन्न लोग बना रहे हैं.

शहरों के मजदूर अपने गांव में लौट रहे हैं जहां उन्हें खाने के लिए राशन मुफ्त मिलेगा शायद. मनरेगा में काम भी मिलेगा और उद्योगों की नई दुनिया में रोबोट का युग आएगा. अभी यूरोप का एक रेस्टोरेंट्स खबरों में देखा जहां रेस्टोरेंट का मालिक अपने शीशे के कमरे में बैठा उसे संचालित कर रहा है. ग्राहक अपना आर्डर ऑनलाइन दे रहा है और स्वचालित रोबोट ग्राहकों तक सामान पहुंचा रहे हैं. रेस्टोरेंट की पहरेदारी पर भी एक रोबोट बैठा है.

यह है वह नए विश्व की एक झलक. विश्व के यह नए मालिक दुनिया की आबादी आधी कर देना चाहते हैं। विज्ञान की जय बोलते हुए मजदूर वर्ग के सचेतन योद्धा उनके द्वारा घोषित शक्तियों को ही एक मात्र सत्य मानकर संतुष्ट हैं. नियतिवाद एक ऐसा दर्शन है जो सब आने वाले को स्वीकार करने का मन तो बनाता ही है, अपनी भूमिका निभाने के दायित्व से भी मुक्ति दिला देता है. ऐसा ही कुछ कोरोना के केस में भी चल रहा है

बरसों पहले भारत में एड्स की बीमारी आई. बहुत से लोगों ने लेख लिखें. यह बीमारी अफ्रीका के बंदरों से उनका खून निकाल कर डेवेलप की गई है और अमेरिका द्वारा यह ब्लड मनुष्यों के ब्लड में मिलाकर दुनिया में सप्लाई किया गया. अगर इससे एक जैविक युद्ध की शुरुआत माने तो फिर डेंगू की याद तो हम सब लोगों को है. डेंगू के साथ ही यह भी याद करें कि अगर बकरी के दूध, पपीते के पत्ते और गिलोय का इस्तेमाल भारत के लोग ना करते तो बहुत मौत होती. अब इम्यूनिटी की बात हो रही है. तुलसी नीम और हल्दी का प्रयोग कर साधारण लोग अपना इलाज करके अपना जीवन बचा रहे हैं. हमारे सामने दो रास्ते हैं- एक है भारत का प्राचीन रास्ता जहां सांस्कृतिक जीवन में इम्यूनिटी बढ़ाने का कार्य अंतर्निहित था. गांव में लगाए जाने वाले पेड़, विशेषकर पीपल गांव के वातावरण में ऑक्सीजन की वृद्धि करता था। और भी बहुत कुछ था जिसे समझ कर भारतीय लोगों का जीवन बचाया जा सकता है. दूसरा रास्ता है जो यूरोप से हमें प्राप्त होता है, यानी पहले वायरस का कहर फिर उसकी वैक्सीन फिर वायरस का नया मॉडल फिर उसकी वैक्सीन और यह सिलसिला अंतहीन।

अभी तीन-चार दिन पहले चीन और ऑस्ट्रेलिया के बीच विवाद होने पर आस्ट्रेलिया ने यह घोषित कर दिया की कोरोना की महामारी चीन द्वारा चलाया हुआ जैविक युद्ध है. अमेरिकी विदेश विभाग ने भी इसी तरह का स्टेटमेंट जारी कर दिया जहां तक दुनिया के बड़े वैज्ञानिकों की बात है, उनके बीच कोरोना के प्राकृतिक और कृत्रिम होने के संबंध में विभिन्न मत मौजूद हैं. अब आपको उनके तर्कों को पढ़ कर उनके तर्कों पर गौर करना है और बताना है कौन सा वैज्ञानिक सही है और क्यों।

हमारी सरकार ने कोरोना महामारी पर शोध कराने से ज्यादा और इसके लिए सुरक्षा उपायों को बढ़ाने से भी पहले चार राज्यों के चुनाव कराना और यहां तक कि उत्तर प्रदेश में पंचायत के चुनाव कराना ज्यादा जरूरी समझा, यह यही सोचकर किया गया कि अगर इसमें जीत मिल जाती है तो सरकार अपने अघोषित ऐजेंडो को भी निश्चिंता पूर्वक आगे बढ़ाए।

अंत में सोचिए यह कि क्या नई जीवन पद्धति आपको स्वीकार है? क्या यह नए उत्पादन के साधनों का प्रतिफल है? क्या यही हमारी नियति है या हमारी आयुर्वेद की सांस्कृतिक विरासत हमें इस नए आक्रमण से बचाने में ज्यादा सक्षम बना पाएगी और हम अपनी जीवन पद्धति में रचे बसे मानवीय संबंधों को बचा सकते हैं?