एक तरफ है कोरोना से भयाक्रांत, अपने घरों में दुबका मध्यम व उच्च वर्गीय समाज, दूसरी तरफ कोरोना संकट के बावजूद जीवन यापन के लिए लॉकडाउन के बावजूद टोकरियों में सब्जियां लेकर गली गली फेरी लगाने वाली ये औरतें. इन्हें अपना भी पेट पालना है और अपने बच्चों का भी. कांके डैम साईड के अपने अपने गांव से इस इलाके तक सब्जी बेचने के क्रम में वे छह सात किमी का चक्कर लगाती हैं.
और एक विरोधाभासी सच्चाई यह भी है कि कोरोना का तांडव भी इनके गांवों में वैसा नहीं जैसा शहरों, महानगरों में दिखता है. यदि इन्हें सर्दी, खांसी, बुखार होता भी है तो वे अपने तरीके से निबटते हैं. ये डैम साईड में नदी किनारे बसे एक गांव की हैं, जहां जम कर सब्जियों की खेती होती है. ये बहादुर औरतें खेती में भी मदद करती हैं और फिर आस-पास की कालोनियों में बेचने का काम भी. भरसक मास्क भी लगाती हैं, लेकिन कोरोना इनके लिए भूख से बड़ा नहीं.
और मेरी यह हिम्मत नहीं कि इन्हें सोशल डिस्टेंसिंग का पाठ पढ़ाउं और घर से बाहर न निकलने की नसीहत दूं. क्योंकि तब पहले मुझे इनके लिए और इनके बच्चों के लिए खाने की व्यवस्था करनी पड़ेगी. हां, वे सुबह घर से निकलती हैं. जो पानी बोतलों में लेकर चलती हैं, वह रास्ते में खत्म हो जाता है. वे ससंकोच पीने के पानी की मांग करती हैं, वह मैं कर देता हूं. इससे ज्यादा के मदद की जरूरत इन खुद्दार औरतों को नहीं.
हमारे घर से जब वे बाहर निकली तो बगल के गेट पर खड़े एक मोटर साईकल सवार ने उनसे कहा- लाॅकडाउन में इस तरह मत घूमो. थोड़ा दूरी बना कर चलो, नही ंतो कोरोना हो जायेगा. उनमें से एक औरत ने तल्ख आवाज में जबाब दिया - मेहनत करने वालों को कोरोना नहीं होता.
यह जरूरी नहीं कि आप उनके जबाब से सहमत हो.