आदिवासी समाज में स्त्री पुरुष की बराबरी की बात कहीे जाती हैं, लेकिन एक बड़ा विरोधाभास यह हैं, कि इस समाज में अब तक महिलाओं को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं मिला है. इसके गंभीर परिणाम कभी-कभी सामने आते हैं. कांके प्रखंड़ के हथिया गोंदा इलाके में ऐसा ही एक मामला सामने आया हैं.
हथिया गोंदा बस्ती में एक महिला बचपन से रहती आयी है. वह बस्ती में ही पली-बढ़ी और उसका विवाह करीब के ही एक गांव में हुआ. लेकिन विवाह के बाद वह इसी बस्ती में बस गयी और उसने अपने माता- पिता की जमीन पर मिट्टी का एक घर बनाया, जिसमें दो कमरे थे और वही पास कुछ जगह पर सबज्यिां, और धान की खेती करती थी. जीवन किसी तरह अच्छा ही गुजर रहा था, पर कुछ वर्ष पूर्व उसके माता-पिता का निंधन हो गया. उसके बाद उसके जीवन का बुरा दौर शुरु हो गया.
उसके तीन भाई और तीन बहनें हैं. दो बहन विवाह के बाद अपनी ससुराल में रहने लगी. गांव में रहने वाली बहन के एक पु़त्र एंव तीन पुत्रियां थी और उसका विवाह एक ऐसे इंसान से हो गया था, जिसको नशे की लत थी. वह काम भी बस अपनी मर्जी से करता था. सच पूछिये तो वह घर उस महिला की मजदूरी से चलता था.
अचनाक उस महिला के लिए चिंता का कारण उसके भाई और भाईयों के बेटे बन गये, क्योकि अब उसके भाई के बेटों ने यह फैसला लिया कि जिस जमीन पर वह महिला रहती थी, उस जगह पर एक भाई घर बनायेगा. यह फैसला तो लिया, पर उस महिला से कुछ नहीं पूछा, जबकि वह महिला उसकी अपनी फुआ थी. कहा जाए तो उन्होंने रिश्ता नहीं, बस संपत्ति देखी, जमीन देखी. तीन भाई थे, पर किसी ने उसका साथ नहीं दिया, ना किसी ने उसकी आर्थिक स्थिति को समझने का प्रयास किया. वह महिला इस डर से कभी किसी से कुछ नहीं बोली या विरोध नहीं कर सकी, क्योंकि उसके मन में भय था कि कुछ बोलंेगे तो उसे उस जगह से भी वे निकाल दिया जायेगा.
धीरे-धीरे भाई के बेटे ने उस जमीन पर एक मकान बना दिया. और मकान के साथ-साथ चारो तरफ बाउंडरी भी घेर दिया. अपनी इच्छा से गेट भी रख लिया और उस घेरे के अन्दर उस महिला के घर को भी घेर दिया. ध्यान देने वाली बात यह भी है कि हर परिवार को एक पड़ोसी की भी जरुरत होती हैं, पर उस घेरे से उसे उसके पड़ोसियों को भी उससे अलग कर दिया गया. उसके सगों के मकान बना लेने से अब उस महिला का रास्ता ही अलग हो गया. अब वह बाहर निकल कर एक-दूसरे के साथ बैठ नहीं सकते, पहले तो बाहर निकलते, घुसते एक दूसरे से बात करते थे, पर अब उनसे बात करने के लिए उसे घूम कर जाना पड़ता है, यहां तक कि अब उस महिला को पानी लाना, बर्तन धोना, कपड़ा धोना, सब कुछ के लिए घूम कर जाना पड़ता हैं. और अब ना उसके पास खेती के लिए खेत हैं और ना ही सब्जियां उगाने के लिए बाड़ी. बस एक छोटे से मिट्टी के घर में किसी तरह अपना जीवन आथर््िाक संकटो के साथ गुजार रहीं हैं.
वह महिला क्यों नहीं बोल पायी? क्योंकि वह एक आदिवासी समाज की बेटी है, और बेटियों को यहां संपत्ति का अधिकार नहीं होता. इसलिए आदिवासी महिलाओं को हमेशा संघर्ष के साथ जीवन यापन करना पड़ता हैं. समाज के अगुवा लोगों को इस गंभीर समस्या पर विचार करना चाहिए और बताना चाहिए कि वह औरत इस परिस्थिति में क्या करे?
क्या जिस तरह 9 सितम्बर 2005 में बना हिन्दू उत्तराधिकार कानून पिता के पैतृक संपत्ति पर बेटी को बराबरी का हक देता है, ठीक उसी तरह आदिवासी समाज में भी यह अधिकार बेटियों को नहीं मिलनी चाहिए?