आदिवासी सामाज के लड़कों में नशे की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. लड़कियां तो घर का काम करने के साथ पढ़ाई भी कर लेती हैं, लेकिन लड़के सामान्यतः पढ़ नहीं पाते और बाद में कुंठा का शिकार हो नशाखोरी करने लगते हैं. वे घर से गायब रहने लगते हैं और किसी एकांत जगह में रहने लगते हैं, जहां उन जैसे कुछ और लड़के जुट जाते हैं. नशे की लत लगने के बाद घर में पैसे के लिए मारपीट, चोरी तक करते हैं. उनका शरीर कमजोर पड़ने लगता है. कई बार तो वे डगमग कदमों से अपने घर तक पहुंचते हैं. और जब तक घर के बड़े इस बात को समझें, तब तक देर हो चुकी होती है.

यदि वे उन्हें समझाने की कोशिश भी करते हैं तो सफल नहीं हो पाते, क्योंकि बड़े- बूढ़े खुद नशे के शिकार होते हैं और उनके समझाने का असर नही ंपड़ता. लेकिन वे ऐसा क्यों करते हैं, इसे सहानुभूति से समझने की जरूरत है. उन्हें दुरदुराने से यह नशाखोरी की आदत और बढ़ती चली जाती है. ये सोचने वाली बात है, आखिर उसे नशा का लत किस कारण लगता हैं, जिसके कारण वे अपना पढाई लिखाई एंव कुछ श्रम करने के बजाए अपना सारा ध्यान नशा खोरी करने में व्यक्त करना चाहता हैं?

इसकी पहली वजह तो यह है कि आदिवासी समाज में भी अब लड़के, लड़कियों के पालन पोषण में भेदभाव बरता जाता है. लड़कियां कठोर अनुशासन में और लड़के लाड़-प्यार से पाले जाते हैं. लड़कियां कुछ बड़ी होते ही घर के काम काज में लग जाती हैं, लड़कों का सारा समय खेल कूद और गुलेलबाजी में बीत जाता है. अनुशासन की कमी का प्रभाव उनकी पढ़ाई लिखाई पर भी पड़ता है और अभिभावकों के देख रेख के अभाव में वह पढ़ाई कम और फांकेबाजी ज्यादा करने लगता है. और एक बार पढ़ाई में पीछे हो जाने के बाद उसका पढ़ने लिखने से मन उचट जाता है. एक बात यह भी समझने की है कि कुछ लड़के इस बीच पढ़ लिख भी जाते हैं, लेकिन नौकरी कहीं मिलती नहीं. इससे उनमें और निराशा बढ़ जाती है.

परंपरागत रूप से आदिवासी समाज खेती करता था. अब शहरी इलाकांे में आदिवासियों के पास खेत रहे नहीं. जमीन की कीमत है और जमीन बेच कर वह अपनी समझ से काफी पैसे बना लेता है, लेकिन पैसा जमा कर रखने की प्रवृत्ति तो उसमें नहीं. इसलिए जल्द ही पैसा खर्च हो जाता है. ज़मीन बेच कर जो भी रुपया आता हैं. उसे गाड़ी खरीदने और घर बनाने में र्खच कर देता है. जब तक रुपया रहता है, मजे में जिन्दगी एशो आराम से गुजारता हैं. उसके बाद कंगाली का दौर शुरु होता है. अब पैसा नहीं, कोई हुनर नहीं, पढ़ाई नहीं, वह निराशा के गर्त में डूबता चला जाता है और फिर नशीले समान बेचने वाले धंधेबाजों के जाल में फंस जाता है.

यह कहानी किसी एक गांव या बस्ती की नहीं, पूरे आदिवासी समाज की होती जा रही है. दुखद स्थिति यह है कि इस गंभीर समस्या की तरफ किसी का ध्यान नहीं.