शारीरिक क्षमता की दृष्टि से स्त्री और पुरुष में विशेष अंतर प्रकृति ने पैदा नहीं की है. औरत और मर्द सभी तरह के काम एक समान भाव से कर सकते हैं. यह सही है कि गर्भावस्था के कुछ महीनों में स्त्रियां थोड़ी कमजोर हो जाती है और बहुतेरे कामों के लिए अक्षम भी, लेकिन मातृवस्था के उन चंद महीनों के अलावा स्त्री भी वह हर काम करने के लिए सक्षम है जो पुरुष. उल्टे विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता उनमें पुरुषों से ज्यादा दिखाई देती है.

बावजूद इसके औरतों को पुरुषों की तुलना में शारीरिक क्षमता और मजबूती की दृष्टि से कमजोर माना जाता है. और उसकी एक प्रमुख वजह यह है कि स्त्री सौदर्य की जो परिभाषा गढ़ी गयी है, वह उन्हें कमजोर बनाती है. दिक्कत यह है कि स्त्रियां भी पुरुषों द्वारा गढ़ी गयी सौंदर्य की परिभाषा को अपना आदर्श मानती हैं. और वह परिभाषा क्या है? स्त्री को सबल नहीं, सुकोमल होना चाहिए. उन्हें स्वस्थ नहीं क्षीणकाय होनी चाहिए. और स्त्रियां नासमझी भरे बचपन से सचेतावस्था को प्राप्त करते ही पुरुषों के बनाये सौंदर्य परिभाषा के अनुरुप खुद को ढ़ालने में लग जाती हैं. मिट्टी छू क रवह मैली हो जायेंगी. धूप में खुले निकल कर कुम्हला जायेंगी. वजन उठाया तो गांठे पढ़ जायेंगी मांस पेशियों में. और औरत से ज्यादा मर्द दिखने लगेंगी. और मर्दानी औरतों को भला कौन पुरुष पसंद करेगा.

पुरुषों को तो हमेशा थोड़ी सी कमजोर स्त्रियां भाती हैं. क्षीणकाय, यौवन भार से थोड़ी झुकी जैसी शकुंतला थी, या फिर मेघदूत की प्रेयषी पत्नी जिसे वह वियोग के दिनों में याद करता है. दरअसल यह सौदर्य बोध ही औरत को उपभोग की वस्तु में तब्दील कर देता है. विश्व साहित्य का एक बड़ा हिस्सा औरत के सौंदर्य पर निछावर है और वह उसके सौंदर्य को इसी तरह पारिभाषित करता है. उसकी छरहरी काया, उसकी पतली कमर, उसके फूल जैसे बदन पर फिदा.

लेकिन स्त्री सौंदर्य की इस परिभाषा ने स्त्रियों का बहुत अहित किया है. उसे ठोस मानवी से ज्यादा एक वायवी वस्तु में बदल दिया है. बचपन में वह लड़कों के साथ कुलांचे भरती थी, लेकिन किशोरावस्था को प्राप्त करते ही वह संभल-संभल कर चलने लगती है. खुल कर हंसने के बजाय सलज्ज मुस्कुराने लगती है. प्रकृति के खुले प्रांगण में स्वच्छंद विचरण करने के बजाये अपने चेहरे और हाथों को धूप-पानी से बचाने लगाती है ताकि उनकी कमनीयता बनी रहे. और वास्तव में धीरे-धीरे वह पुरुषों से शारीरिक क्षमता में कमजोर होती चली गयी है. वह खुद मानने लगी कि बहुतेरे काम सिर्फ पुरुष ही कर सकते हैं.

तो, पुरुषों और सौदर्य प्रशासधनों के बाजार द्वारा गढ़े इस सौंदर्य बोध को बदलिये. मिट्टी छू कर आप मैली नहीं होंगी, शारीरिक श्रम करने से कमनीयता भले कम हो सौष्ठव बढ़ता है.