रमजान के महीने में जहाँ सारा जहान भूखा हो, दिन में सरेआम खाना खाने में एक नैतिक झिझक सी हो रही है, गो टुरिस्ट तो खा-पी रहे ही हैं। पर अपने हालीडे होम की कैंटीन में उम्दा घरेलू खाना खाकर दिन-भर की कसर निकल जाती है। खाना बनाने वालों में से एक हैं लाल मोहन साह। खास अपने समस्तीपुर के। कैंटीन के ठेकेदार उनके जवार के हैं और उनकी जात के भी। लाल मोहन उन्हीं के सदके पिछले आठ साल से श्रीनगर में हैं। पर यहाँ तो खतरे बहुत होंगे, उन्हें डर नहीं लगता ? ‘ नहीं सर। सब बढ़ा चढ़ा कर बताता है। हम तो कर्फ्यूओ में दूध-सब्जी ले आते हैं।’

यह भरोसा हमें बारम्बार दिलाया जा रहा है।

एअरपोर्ट से होटल के रास्ते में हम अपनी हैदरपुरा शाखा में रुके थे। वहाँ एक महिला मिलीं श्रीमती अफसां अंजुम। उनके पति अफगानिस्तान में डाक्टर हैं - ‘नाटो’ के साथ। वे खुद एक स्कूल में टीचर हैं। वे हमारे शाखा प्रबंधक गुलाम मुहम्मद मलिक और उनके सहयोगियों की भूरि भूरि प्रशंसा करती हैं और मुझे कश्मीर के हालात का भरोसा दिलाती हैं - ‘अभी हालात ठीक ही हैं। आर्मी ने भी पिछले साल दो सालों में थोड़ी सख्ती बरती है और दहशतगर्द कुछ कमजोर पड़े हैं।’

श्री मलिक से मिलने आए एक और ग्राहक श्री परवेज बट्ट का कहना है कि कश्मीर के मसले का कभी-न-कभी तो कोई तो हल निकलेगा, और निकलेगा तो अमन के रास्ते ही। वे भारतीय फौज के लिए ठेकेदारी करते हैं - अभी बारामुला से आगे बन रही किसी सड़क के निर्माण-कार्य से जुड़े हैं।

डल झील की फ्लोटिंग मार्केट के दुकानदार वली अजहर कहते हैं ‘सर, आपने देखी कोई दहशत या कोई हरारत? इन टीवी वालों की मानें तो पूरे मुल्क में आग ही आग दिखेगी।’ पानी में खड़े काठ के खंभों पर बनी उनकी दुकान उनके परदादा के जमाने से चल रही है। 2014 की बाढ़ में पूरी तरह डूब गयी थी और फिर से बनानी पड़ी । शाम के पौने आठ बजे हैं और वे इफ्तार के लिए जा रहे हैं। उनकी चाय तो हम नहीं पी रहे, पर उनके दिए केले का भोग लगा रहे हैं जब तक कि वे इफ्तार और नमाज से नहीं निपट लेते।

अजहर मेरी मार्फत अपने और संभावित ग्राहकों को अमन-ओ-अमान का भरोसा देना चाहते हैं शायद। दरअसल, पर्यटन के धंधे से लगा हर शख्स कश्मीर की नकारात्मक छवि से हलाकान और आशंकित है।

हमारे ड्राइवर शफी अहमद डार भी कश्मीर के हालात के लिए सियासतदानों को ही जिम्मेदार मानते हैं। शफी लम्बे, गोरे, खूबसूरत हैं। उनकी तीन बेटियां हैं - बड़ी दसवीं में पढ़ रही है, बाकी दोनों छोटी कक्षाओं में हैं। शफी लगातार बातें करते हैं। और भी ज्यादा जब साथ में कोई और कश्मीरी मिल जाए। बल्कि मुझे तो लगा कि सारे ही कश्मीरी वाचाल होते हैं। हमारा शिकारा चलाने वाले अमानुल्लाह भी हर आने जाने वाले शिकारे वाले से दुआ सलाम के बाद जोर-जोर से बातें कर रहे हैं। और गुलमर्ग में हमारे साथ लगाए गए सीआरपीएफ के जवान मंजूर रफी भी एक पल चुप नहीं रहते।

कश्मीरी जुबान बहुत शीरीं है। उर्दू के दो चार लफ्जों के अलावा बिल्कुल अबूझ। पर सुनने में मजा आता है। और चश्मे को चश्मा तो सभी बोलते हैं, पर कश्मीरियों जैसा चश्मा कोई क्या बोलेगा - शफी हमें पहलगाम के सारे चश्मे बड़े चाव से दिखाते हैं। लिद्दर का फेनिल पानी कल-कल , छल-छल अठखेलियां करता पहाडों से कई सारे चश्मों की रू में उतर रहा है। शफी का यह भी कहना है कि भले ही चारो ओर सुकून का मंजर हो, पर कश्मीर में कब चिनारों पर आतिश दहक उट्ठेंगे, इस का कोई ठिकाना नहीं। उनकी जुबान से ये लफ्ज निकले नहीं होंगे कि अचानक सेना की एक टुकड़ी ने पहलगाम से आती गाडियों को रोक कर उनकी सघन तलाशी शुरु कर दी है। अपना सायरन बजाते हुए एक एम्बुलेंस सांय से निकली है। जाने आगे क्या हुआ है। बिजबेहरा बाजार में दुकानों के शटर या तो अभी खुले नहीं या फिर बंद हो गए हैं। ठीक ठीक पता नहीं चल रहा। थाने के बाहर फौज के जवानों ने मोर्चा संभाल रखा है। सामने लोग इकट्ठा हैं और कुछ सनसनी सी है। कोई कह रहा है कि एक बम फटा है। ठीक बगल में हस्पताल है, उसके सामने भी भीड़ है।

गाडियाँ बदस्तूर चल रही हैं पर हम आगे बढ़ जाएँ और हड़ताल हो जाए तो हम पहलगाम में ही फंस जाएंगे। शफी हमें आश्वस्त करते हैं - कोई बात नहीं सर। हम साथ में हैं न। कुछ नहीं होगा। मैं निश्चिंत हूँ, इतना तो हमें भी पता है कि जीवन-मरण तो विधि के हाथ है। जो घड़ी मुअय्यन है, उसके पहले मौत कहां आनी।

पहलगाम से आगे बेताब वैली, चंदनवाडी और ‘ओर’ वैली हम एक अलग कार में एक अलग ड्राइवर के साथ चले हैं। नाम है शकूर राणा। उनकी एक बेटी है कोई छह-सात साल की। एक बेटा भी था नौ साल का, जो चार महीने पहले बोन कैंसर से अल्लाह को प्यारा हो गया। उसके इलाज में शकूर की तीन कनाल जमीन बिक गयी, पच्चीस लाख रुपये खर्च हो गये। अब बेटी को वे डाक्टर बनाना चाहते हैं। उनके साले आर्मी में हैं और उसी लाग-भाग से उनकी बेटी को भी आर्मी स्कूल में दाखिला मिल गया है।

शकूर हमें बेताब वैली दिखाते हैं, वो जगह जहाँ बरसों पहले सनी देवल और अमृता सिंह की फिल्म शूट हुई थी। कला की सबसे लोकप्रिय विधा होने के बावजूद उसके व्यवसायिक आग्रहों के कारण फिल्मों को हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में यथोचित आदर नहीं मिलता। पर पहलगाम के आगे की यह गुमनाम सी वादी ‘बेताब’ के दम से ही आबाद हुई है, और शकूर सनी देवल का जिक्र कुछ वैसे ही आदर के साथ करते हैं जैसा कि हम देवताओं का करते हैं।

वे अक्सर शूटिंग पर आने वाले दलों के साथ हफ्ते दो हफ्ते बिताते हैं और उनका कहना है कि फिल्म ‘हाइवे’ में हम उनकी गाड़ी 7011 को देख सकते हैं। आलिया भट्ट उन्हें बहुत सहृदय लगीं और रनदीप हुड्डा बड़े सरल। और सलमान भाई का तो कहना ही क्या। अभी ‘रेस 3’ की शूटिंग के बाद उन्होंने बीस पचीस लाख खर्च करके दो हिंदू और एक मुसलमान लडकियों का सिर्फ निकाह ही नहीं करवाया, बल्कि सिर्फ उसके लिए शूटिंग के बाद दो दिन रुके रहे।

क्या उनके यहाँ भी दहेज चलता है ? ‘नहीं चलता तो नहीं, अपनी मर्जी से जो साजो-सामान दें तो सही। पर हमारा वाजवान में बड़ा खर्च है, बीस बाईस किसम का तो गोश्त ही बनता है।’ जारी