‘मददती रोपनी’ आदिवासियों की सामूहिकता को प्रकट करने वाली एक ऐसी परंपरा है. जो वर्षों से आदिवासी समाज में चली आ रही हैं. हालांकि अब इस परंपरा पर भी उपभोक्तावाद का प्रभाव पड़ने लगा है, लेकिन अभी यह खत्म नहीं हुआ है और आदिवासी समाज को अन्य समाज से अलग कर विशिष्ट पहचान देता है.
धान की खेती अब शुरू हो गयी हैं. सभी तरफ खेतों में खेतिहर अपने-अपने खेतों को तैयार कर रहे हैं. खेत तैयार कर लेने के बाद वे रोपनी के लिए औरतों एवं लड़कियों को घर जा कर बोलते हैं - ‘कल मेरे खेत में रोपनी करने आ जाना.’ सभी रोपनी के लिए तैयार हो जाती है. ठीक सुबह होते सभी कोई रोपनी के लिए गमछा, तौलिया, दुपट्टा एवं छाता साथ में पकड़ कर खेत की ओर निकल जाते हैं. आपस में गपशप करते करते सभी खेत पहुँच जाती हैं. खेत मे उतरने से पहले वे सिर एवं कमर में गमछा, तौलिया, दुपट्टा बांध कर खेत मे रोपने के लिए उतर जाती है .फिर सभी अपनी अपनी जगह लेकर रोपना शुरू कर देती हैं. रोपनी के साथ-साथ सभी औरतंे एवं लड़कियां सरल स्वभाव के साथ मिलजुलकर हंसी-मजाक और साथ मे गीत गाते - गाते रोपनी करती हैं. कहा जाय तो रोपनी एक उत्साह, उमंग से भरा पर्व सा लगता हैं. रोपनी करते-करते कब दिन ढल जाता और शाम हो जाती, यह पता ही नही चलता. शाम ढलते रोपनी खत्म होने के पश्चात खेतिहर किसान सभी औरतों-लड़कियों को आवाज देते हैं- सुनो, शाम में सभी कोई मेरे घर आ जाना.
रोपनी करने वाली सभी औरतें घर आ कर नाहा-धोवा कर खेतिहर किसान के घर के लिए रवाना हो जाती हैं. खेतिहर के परिवार वाले आंगन में पटिया बिछा कर रख देते हैं. फिर वही सब लाइन से बैठ जाती हैं. उसके बाद सभी को कच्चा या उबाल कर रखा चना सखुवा का पत्ता में नमक मिर्च के साथ देते है और साथ में जो बुजुर्ग महिलाएं हड़िया पीना चाहती हैं, उसे हड़िया भी पिलाया जाता हैं. सभी मजे में खाती है. उसके बाद भात और उरद का दाल और साथ में अचार या साग का सब्जी देते हैं. इसी तरह कृषि क्षेत्र में एक दूसरे का सहयोग कर रोपनी की जाती हैं.
अर्थात ये कहाँ जा सकता हैं, कि आदिवासी समाज की खेती दिहाडी मजदूर पर नहीं टिकी हैं.
वैसे, मददती रोपनी की परंपरा पर अब उपभोक्तावाद का प्रभाव पड़ने लगा है. अब लोग बिना पैसे लिए किसी खेतिहर का मदद नहीं करना चाहते. अफसोस कि बात यह हैं कि इसके कारण अब गरीब किसानों के खेत में रोपनी होना रुक सा गया हैं. इस वजह से वे अब धीरे-धीरे खेती करना छोड़ते भी जा रहे हैं. जिसके पास पैसा है, वही किसान खेती कर पा रहे हैं और जिसके पास पैसा नहीं वे निराश मन कर खेती छोड़ बैठे हैं. ‘मददती रोपनी’ की मदद से गरीब किसान की खेती होती थी, वह लुप्त हो रही है. अब गरीब किसान के खेत में पानी रह कर भी सूखा सा पड़ा रहता है और ऐसा ही रहा तो एक दिन देखते देखते सारा खेत बिकने के लिए तैयार हो जायेंगे. यदि जमीन बिकने से बचानी है तो इस परंपरा को बचाना ही होगा.