21 जून को अंतराष्ट्रीय योग दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रांची आये और रांची के प्रभात तारा ग्राउंड में लगभग 40 हजार लोगों के साथ 45 मिनट योगाभ्यास किया. योग मुद्रा में उनकी तस्वीरों के साथ बने पोस्टरों से रांची के चैक चैराहों को सजाया गया था और उनकी सुरक्षा के भारी बंदोबस्त किये गये थे. विडंबना यह कि उन्होंने अपने संक्षिप्त भाषण में स्वस्था जीवन के लिए योग के अलावा जिन तीन तत्वों को आवश्यक बताया, उसका अपने देश में घोर अभाव होता जा रहा है. उनका कहना था कि स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी है पानी, पोषण और वातावरण. पानी तो चर्चा का विषय बना हुआ है, प्रदूषण का यह हाल है कि अपना विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा 2016 में जारी सर्वाधिक प्रदूषित 30 शहरों में दिल्ली सहित 14 शहर भारत के हैं. और रहा पोषण का हाल तो इसका दृष्टांत सामने आते रहते हैं. इस रंगारंग योगाभ्यास के बीच बिहार के मुज्जफरपुर में कुपोषण और बीमारी से बच्चों के मरने का सिलसिला थम नहीं रहा. झारखंड में भी भूख और गरीबी से लोगों मरने लगे हैं.
उन दर्दनाक खबरों के बीच मोदी के योगरत पोस्टरों को देख कर सहज जिज्ञासा होती है कि क्या भूख और कुपोषण का इलाज योग से हो सकता है? क्योंकि योग का प्रचार हाल के दिनों में कुछ इस तरह से हो रहा है, जैसे हर रोग का इलाज योग ही है. काश, ऐसा हो पाता. लेकिन योग भूख और कुपोषण का इलाज नहीं. दूसरी तरफ कार्यशील जीवन में योग की जरूरत बहुत कम है. सामान्य आदमी को दो वक्त की रोटी के जुगाड़ के लिए ही जीवन इतने योग करवाती है कि उसे अलग से योग करने की जरूरत कभी नही पड़ती. दिहाड़ी पर खटने वाला मजदूर, एक घड़ा पानी के लिए या फिर जलावन की लकड़ी के लिए कई- कई किलोमीटर का चक्कर लगाने वाली औरतों के किस काम योग? उसका रोग तो उसके पेट में धधकती भूख की वह ज्वाला है जो कभी नहीं बुझ पाती. वे हाड़तोड़ श्रम के बाद भी वह इतना अर्जन नहीं कर पाते कि अपने पेट की इस क्षुधा को बुझा पाते और कुपोषण के शिकार हो जाते हैं.
कुछ वर्ष पूर्व नैशनल फैमली हेल्थ सर्वे ने एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके अनुसार भारत में 2005-06 में 48 फीसदी बच्चे ठिगने और कम वजन के थे, जिनमें अगले दस वर्षों में मामूली सुधार हुआ 15-16 में उनका प्रतिशत 38.4 के करीब रहा. 19 फीसदी नवजात शिशु का वजन 2.5 किलोग्राम से भी कम होता है. पांच वर्ष तक के 38 फीसदी ग्रामीण बच्चे और 29 फीसदी शहरी बच्चे अंडरवेट होते हैं. मोटा-मोटी 58 फीसदी बच्चे रक्त अल्पकता के शिकार होते हैं. इसका प्रभाव उनके मस्तिष्क के विकास पर पड़ता है. वे ठिगने हो जाते हैं. उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है और वे आसानी से संक्रमण के शिकार हो जाते हैं. केंद्र सरकार द्वारा जारी सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे यह कहता है कि झारखं डमें 1000 में से 29 बच्चे, मध्य प्रदेश में 1000 में 47 बच्चे, असम और ओड़िसा में प्रति हजार 44 बच्चे और उत्तर प्रदेश में प्रति हजार 43 बच्चे जन्म लेने के एक वर्ष के भीतर मर जाते हैं. जाहिर है, योग उनकी कोई मदद नहीं कर सकता. उल्टे भूख और गरीबी से आक्रांत उनके जख्मो पर नमक छिड़कने का काम करता है योग का प्रचार. कुछ ऐसा ही एहसास देता है कि जनता को राशन चाहिए और नेता उसे भाषण पिला रहा हो.