1975 में 25 जून को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस देश की जनता पर आपातकाल लादा था। बेशक भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का यह एक काला अध्याय है। आपातकाल के छियालिस वर्षों बाद आज हमें अपना मूल्यांकन करना चाहिए कि हमने संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में क्या-क्या किया हैं? आज संसदीय लोकतंत्र की स्थिति कैसी है? हर वर्ष केवल 25-26 जून को काला दिवस मनाने की रस्म अदायगी करने और कांग्रेस को कोसने से हम सही दिशा में अग्रसर नहीं हो सकते।
जेपी आंदोलन में जो संगठन और शक्तियों शामिल थी उनका भी ऐतिहासिक मूल्यांकन करने की जरूरत है। आज भाजपा और उसका मातृ संगठन आरएसएस के लोग जोर-जोर से आपातकाल के विरोध में चिल्ला रहे हैं। इतिहास में कभी-कभी विडम्बना की स्थिति बनती है, जब लोकतंत्र विरोधी शक्तियों को भी लोकतंत्र बचाने के नाम पर अपना हित साधने का अवसर मिल जाता है। यही मौका भाजपा और आरएसएस को जेपी आंदोलन व आपातकाल के दरम्यान मिला था। आपातकाल विरोध का नकाब लगाए भाजपा- आरएसएस का असली चेहरा क्या है, यह इमरजेंसी के दरम्यान आरएसएस के तत्कालीन सरसंघ चालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस जी द्वारा 10 नवंबरश् 1975 को जेल से इंदिरा जी को लिखे प्रशंसा- पत्र से प्रमाणित होता है। इस पत्र के पहले 22 अक्तूबर 1975 को भी एक पत्र देवरस जी ने इंदिरा जी को भेजा था, लेकिन वह सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है। 10 नवंबर 1975 के पत्र को भाजपा- आरएसएस के लोग छुपाते रहते हैं, लेकिन यह सार्वजनिक हो चुका है। इस पत्र में देवरस जी ने सबसे पहले इंदिरा जी को इसके लिए हार्दिक बधाई दी थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने उनके चुनाव को वैध ठहराया है।
उल्लेखनीय है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार देते हुए उन्हें छह साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी। बाद में इंदिरा जी ने संसद में बहुमत का दुरूपयोग करते हुए चुनाव कानून में परिवर्तन किया था जिसका लाभ उठाकर वे सर्वोच्च न्यायालय में जीत गयी थीं। बावजूद इसके आपातकाल के दरम्यान देवरस जी के द्वारा इंदिरा जी को बधाई देना प्रकारांतर से आपातकाल का समर्थन और जेपी आंदोलन का विरोध नहीं, तो और क्या है। पत्र में आगे लिखते हैं कि जेपी आंदोलन से संघ का कुछ भी संबंध नहीं है। उन्होंने आपातकाल में इंदिरा जी से मिलने की इच्छा प्रकट की। पत्र में संघ से जुड़े लोगों को जेल से छोड़ने की बात कहते हुए देवरस जी कहते हैं कि ऐसा करने से लाखों स्वयंसेवकों की शक्ति सरकार के कार्यों में लगेगी। इसलिए भाजपा- आरएसएस के लोग इमरजेंसी विरोध का चाहे जितना ढोल पीटें, वे इमरजेंसी के दरम्यान जेल में रह कर भी जेपी आंदोलन से भीतरघात कर रहे थे।
भाजपा- आरएसएस के लोग तानाशाही के कितने विरोधी हैं, यह मोदी शासन में जगजाहिर है। इसके पहले कि मोदी सरकार के तानाशाही चरित्र का हम पर्दाफाश करें, कुछ महत्वपूर्ण बातों का जिक्र करना यहां जरूरी है। हर आने वाला शासक पिछले शासक की गलतियों से सीख लेकर ज्यादा धूर्ततापूर्ण तरीके से काम करता है। प्रत्यक्ष तानाशाही का नतीजा इंदिरा जी भुगत चुकीं थीं, इसलिए प्रकट तौर पर मोदी सरकार उससे बचने का आभास देगी। इसलिए आज की स्थिति का विश्लेषण इमरजेंसी के पैमाने पर करना गलत होगा। आज छियालिस वर्षों बाद स्थिति बदल चुकी है।
इंदिरा जी ने देश पर तानाशाही थोपने का निर्णय जिस तरह से लिया था उससे यह साफ जाहिर होता है कि वह एक कोटरी का निर्णय था जिसका मुख्य उद्देश्य इंदिरा जी की व्यक्तिगत सत्ता को बचाना था। आर के धवन, सिद्धार्थ शंकर राय, संजय गांधी, बंशीलाल, ओम मेहता के अलावा इंदिरा जी के सचिव पी एन धर और तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद को छोड़कर पूरी कांग्रेस अंधेरे में थी। दरअसल कांग्रेस पार्टी की कोर विचारधारा तानाशाही की पक्षधर नहीं है। इसलिए इमरजेंसी कांग्रेस की विचारधारा का परिणाम नहीं था। यह एक विनाशकारी भटकाव था। हालांकि गलतियों को स्वीकार करना आज किसी भी नेता व दल का चरित्र नहीं है। इसके बावजूद राहुल गांधी ने 3 मार्च 2021 को यह स्वीकार किया कि इमरजेंसी लगाना गलत था। राहुल गांधी का यह बयान कोई आइसोलेटेड स्टेटमेंट नहीं था, यह कांग्रेस की विरासत का नतीजा था।
कांग्रेस ही नहीं आज किसी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के खिलाफ पार्टी के अंदर भी बड़े से बड़े नेताओं को भी हिम्मत नहीं है उनकी आलोचना करने की। पार्टी कमेटियों की बैठकें केवल दिखावा मात्र हैं। नेता के फैसले से हां में हां मिलाने से ज्यादा उसकी हैसियत नहीं है। ऑथोरिटेरियन प्रवृत्ति सभी दलों में है। लेकिन भाजपा- आरएसएस तथा अन्य दलों में एक बुनियादी अंतर है। भाजपा की विचारधारा लोकतंत्र विरोधी व तानाशाही का पक्षपोषण करने वाली है। साम्प्रदायिक फासीवाद उसकी सोंच के केन्द्र में है। इसलिए इमरजेंसी में इंदिरा जी ने अपनी निजी सत्ता बचाने तक लोकतान्त्रिक संस्थाओं का दुरूपयोग करने की कोशिश की जिसका खामियाजा उन्हें 1977 के चुनाव में भुगतना पड़ा। लेकिन मोदी शासन में संस्थाओं का केवल दुरुपयोग नहीं हो रहा है बल्कि उसे खोखला करने, खत्म करने और उसका फासीवादीकरण करने की लगातार कोशिशें जारी हैं। इमरजेंसी में अखबारों पर सेंसरशिप लागू किया गया था। फिर भी संपादकों और पत्रकारों पर उतना नियंत्रण इंदिरा जी नहीं लगा सकीं थीं जितना मोदी सरकार ने मेन स्ट्रीम मीडिया पर आज लगा रखा है। टेक्नोलॉजी ने बिना इमरजेंसी के यह शिकंजा कसने में भारी मददगार साबित हुई है। मोदी सरकार घर बैठे आज मीडिया को चाटुकारिता करने के लिए मजबूर कर रही है। संपादकों व पत्रकारों की नौकरी पर हर वक्त तलवार लटकता रहता है। लेकिन आमजन को इस अघोषित इमरजेंसी का एहसास तक नहीं होता है। सोसल मीडिया पर भी शिकंजा कसने के लिए तरह-तरह के उपाय किये जा रहे हैं। मोदी सरकार के द्वारा अब तक 400 बार इंटरनेट शट-डाउन किया गया है। मोदीराज में प्रेस स्वतंत्रता के मामले में भी 180 देशों में भारत का स्थान 140 पर है। यह सब लिखने- पढ़ने और बोलने की आजादी पर हमला नहीं तो और क्या है?
इमरजेंसी में इंदिरा जी का विरोध करने वाले लाख से ज्यादा लोगों को जेल भेजा गया। 1977 में जब इंदिरा जी हार गयीं तो सरकार ने देश भर में आंदोलनकारियों के उपर से केस खत्म कर दिये थे। लेकिन आज स्थिति ज्यादा भयावह है। आज मोदी सरकार अपने विरोधियों के पीछे ईडी और सीबीआई को भिड़ा कर हमेशा के लिए परेशान करने और अपने सत्ता के लिए ब्लैकमेल करने का हथकंडा अपना रही है। आंदोलनकारियों और अन्याय-अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले हजारों लोगों को देशद्रोह के झूठे मुकदमे में फंसाया गया है और जेल भेजा गया है। अर्बन नक्सल के नाम पर छात्रों- युवाजनों और ख्यातिप्राप्त बुद्धिजीवियों को जेल की सलाखों के पीछे वर्षों से डाल दिया गया है। न्यायालय तक में कोई सुनवाई नहीं है। इमरजेंसी के दौरान दमन का तरीका राजनीतिक था, वे राजनीतिक बंदी माने जाते थे। लेकिन आज मोदी सरकार में अपने विरोधियों को देशद्रोही, आतंकवादी और भ्रष्ट साबित करने और मीडिया के माध्यम से कलंकित करने के लिए तमाम तरह के सरकारी व गैर सरकारी हथकंडे अपनाये जा रहे हैं।
इसलिए विरोधियों से निपटने का मोदी सरकार का तरीका फासीवादी है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के एक आंकड़े से भयावह स्थिति का पता चलता है। 2016-19 मात्र तीन वर्षों में देशद्रोह के मुकदमे में 160 प्रतिशत इजाफा हुआ है। दिल्ली के दंगें में दंगे का सरगना व दंगाईयों पर मुकदमें नहीं किये गये लेकिन धार्मिक विषमतामूलक नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वालों को चुन-चुन मुकदमों में फंसाया गया। इसमें केवल स्थानीय पुलिस नहीं मोदी सरकार लगी थी। एनएसए और यूएपीए जैसे बर्बर कानून के तहत हजारों लोग जेल में हैं। जब से मोदी जी सत्ता में आये हैं एक हेट क्राईम का नया सिलसिला शुरू हुआ। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक 2015 से 2019 के बीच मॉबलिंचिंग के चलते 133 लोग मारे गये। इसलिए सच्चाई यह है कि इंदिरा जी के समय सरकार के पास जो दमन की शक्ति थी आज मोदी सरकार के पास उससे कई गुणा ज्यादा दमन की शक्ति है। सरकार का रवैया घृणा भड़कानेवाला होता है।इसलिए बिना इमरजेंसी लगाए आज लोगों में भय व्याप्त है। चैक चैराहों पर, रेल यात्रा के समय आम आदमी खुलकर सरकार के विरोध या पक्ष में बहस किया करता था, आज डरता है। डेमोक्रेसी के मामले में भी दुनिया में भारत का स्थान 2014 में 27 पर था जो 2020 में गिर कर 53 पर आ गया।
इसलिए हमारा लोकतंत्र आज ज्यादा खतरों और चुनौतियों से घिरा है। इसे बचाने के लिए तमाम जनपक्षीय शक्तियों को एकजुट होने की जरूरत है।