आदिवासी हितों के संरक्षण के लिए पांचवी अनुसूचि के नाम से संविधान में किया गया प्रावधान खोखले डब्बे के सिवा कुछ नहीं. खोखला डब्बा यानी, जो शोर ज्यादा करता है, लेकिन जिसके भीतर कोई सत्व नहीं. हमारी विडंबना यह है कि बहुधा झुनझुना बजा कर ही हम खुश हो लेते हैं और फिर उसे ही बचाये रखने के लिए संघर्ष को अस्तित्व की लड़ाई मान लेते हैं. दरअसल, आदिवासी समाज किसी कानून से अब तक नहीं बचा है, वह जल ,जंगल, जमीन पर अपने हक के लिए सतत संघर्ष और कुर्बानियों से बचा है. और आगे भी बिना किसी लाग लपेट के इसी तरीके से बचेगा. नेह अर्जुन इंदवार का आलेख बंगाल के आईने में लिखा गया है जहां पांचवी अनुसूचि ठीक ढंग से लागू नहीं, लेकिन झारखंड सहित उन राज्यों में जहां पांचवी अनुसूचि लागू है, वहां इसकी क्या स्थिति है? समस्या कहां है, आईये इसे समझे.

  • पांचवी अनुसूची की सारी शक्ति राज्यपाल में केंद्रित है और राज्यपाल की शक्ति कंद्रीय मंत्रिपरिषद एवं राष्ट्रपति तथा प्रांतीय विधानमंडल और मंत्रिपरिषद पर निर्भर होती है.
  • सलाहकार परिषद सिर्फ मांगने पर सलाह दे सकता है. राज्यपाल उसे मान लें यह जरूरी नहीं.
  • सलाहकार परिषद में आदिवासी विधायकों की बहुलता होती है. लेकिन वे अलग अलग राजनीतिक दल से संबद्ध होते हैं. वे अपने दल के अनुशासन से संचालित होते हैं.
  • सलाहकार परिषद के सदस्य आदिवासी ही हो सकते हैं, लेकिन उसको संचालित करने वाला, यानी कि राज्यपाल आदिवासी हो जरूरी नहीं. आदिवासी राज्यपाल या मुख्यमंत्री भी आदिवासी हितों के प्रति संवेदनशील हो, यह जरूरी नहीं, लेकिन गैर आदिवासी राज्यपाल से आप संवेदनशीलता की उम्मीद कैसे कर सकते हैं जो सामान्यतः आदिवासी परंपराओं को बहुत कम जानते समझते हैं? सामान्यतः वे आदिवासी हितों के प्रति अज्ञानी, असंवेदनशील और कभी-कभी पूर्वाग्रही होते हैं.

झारखंड या अन्य राज्यों में जहां पांचवी अनुसूची लागू है, वहां कभी हमने नहीं सुना कि राज्यपाल ने आदिवासी भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाई हो. झारखंड में राज्यपाल नेतरहाट परियोजना, कोयलकारों परियोजना, सारंडा वन क्षेत्र में उत्खनन आदि पर रोक लगा सकता था. लेकिन आज तक एक भी ऐसा दृष्टांत नहीं मिलता. नेतरहाट या कोयलकारों जन संघर्ष से रद्द या स्थगित हुआ.

अभी तो झारखंड में आदिवासी राज्यपाल भी है. एचईसी की जमीन, जो दरअसल आदिवासी विस्थापितों की जमीन है, पर एक स्मार्ट सिटी बनने की योजना चल रही है. क्या आप उम्मीद करते हैं कि पांचवी अनुसूची का मुखिया होने के नाते राज्यपाल इस पर रोक लगाने की अनुषंसा राष्ट्रपति से करेंगे.

तो साथी भ्रम में मत रहिये. अपने अस्तित्व के लिए सतत संघर्ष ही एकमात्र विकल्प है.