पिछले दिनों मैं अपनी सहेली से मिलने मांडर गयी. दो दिन वहां रही और हमारा ज्यादा समय साल वृक्ष से भरे जंगल में घूमते बीता. लौट कर वापस रांची आयी हूं तो मैं हर उस अनुभव और आनंद को और उस जानकारी को, जो मैंने वहां के लोगों से बात कर प्राप्त किया, उस प्रकृति से गुजरा हुआ हर दृश्य को शब्दों में गूथना चाहती हूं. वन क्षेत्र का सदियों पुराना संबंध रहा है आदिवासी समाज से.अधिकतर वनों में सखुआ के पेड़ पाये जाते हैं. इसके कई प्रकार के नाम है. जैसे सखुआ, साल, एवं कई लोग इसे साखु भी कहते हैं.सुस्पष्ट शब्दों में कहें तो साल का वृक्ष एवं पुष्प सरना धर्म के लिए, हरेक आदिवासी के लिए पवित्र और पूजनीय हैं.
गाँव में आदिवासी समाज के लोग सुबह उठ कर, घर का सारा काम समेट कर सभी गाय, बकरी लेकर जंगल की ओर प्रस्थान करते हैं. जंगल पहुँच कर, उसके अंदर जाने के बाद चारो तरफ साल के पेड़ एवं आसमान बस दिखाई देता है एवं चिड़ियो की मधुर चीं-चीं की आवाज बस सुनाई देती है चारो तरफ. संगी, साथी सब आपने काम में जुट जाते हैं. कोई साल का पत्ता तोड़ता, तो कोई साल की दातून एवं साल कि लकड़ी सभी जंगल में घूम -घूम कर तोड़ते हैं. सीजन के हिसाब से जंगल में पुटका, खुखड़ी, आम, जामुन आदि भी खाने को मिलता है और एक बात यह है कि लोग जंगल एक दिन नहीं हर मौसम में जाते है, चाहे वह वर्षा, ग्रीष्म, शरद, हेमंत, शिशिर, एवं वसंत ऋतु हो, सभी ऋतुओ में जंगल से आदिवासियों का रिश्ता बना रहता है.
जंगल में घूमते -घूमते प्यास या भूख लगती है तो वे जंगल के बीच नदी या फिर कोई गढ़ा में जमा हुआ पानी जिस गढ़े को लोग पझरा बोलते हैं, का निर्मल जल पीते हैं. वह पझरा कुआं के जैसा होता है, जिसमे पानी घटता नही चाहे कोई भी ऋतु हो. ठीक उसी प्रकार अगर भूख लग जाती तो जंगल में अन्य फल भी मिल जाते, उसे ही खा लेते हैं, सामान्य रूप से देखा जाय तो आदिवासी समाज के लोग जंगल पर भरोसा कर के ही ना पानी ले जाते और ना खाने को कुछ और. जंगल ही उनकी भूख प्यास मिटाता है.
आदिवासी समाज के लोगों का कहना है कि सखुआ हमारे जीवन का सुख है, इसकी महत्व आदिवासी समाज में बहुत ज्यादा है, क्योंकि इस पेड़ के हर भाग का उपयोग होता है. जैसे, लकड़ी एक तरफ जलावन के लिए, दूसरी ओर लकड़ी का उपयोग घर बनाने के लिए. फल को तो खाते हैं, और पत्ता का उपयोग लोग शादियों में भात खाने में अभी भी उपयोग करते हैं. उसके बाद आया साल का दातुन. जब ब्रश नहीं था तब लोग साल का दातुन से ब्रस करते थे. और कुछ गाँव शहरो में अभी भी इसी का उपयोग करते हैं, आदिवासी समाज के लोग जन्म से प्रकृति से जुड़े है.ं इसलिए शायद प्रकृति ने उसे हर जरूरत की चीजें उपलब्ध करायी.
मानव सभ्यता के अनुसार आदिवासी समाज प्रकृति का एक हिस्सा था, इस प्रकृति को बचाने के लिए कई महान पुरुषों ने अपना बलिदान दिये. बिरसा मुंडा, सिंधु-कान्हू इसी जंगल को बचाने के लिए शहीद हुए.