देश में पिछले कुछ वर्षों से लड़कियों की शिक्षा पर बहुत जोर दिया जा रहा हैं, लेकिन वंचित समाज की लड़कियों का जीवन कितना संघर्षपूण हैं, इसकी कल्पना भी नहीं कर पाते नीतिकार और वह अभिजात तबका व मध्यम वर्ग जिनके बच्चे चांदी का चम्मच लेकर पैदा होते हैं. केरियर के प्रति सचेत अभिभावक, महंगे निजी विधालय, ट्यूशन दे देकर अपने बच्चों का केरियर बनाते माता पिता, उसकी तुलना में आदिवासी, दलित बच्चोें के लिए न तो माता -पिता बहुत सचेष्ट रहते हैं और न उनके जीवन की परिस्थिति इतनी अनुकूल कि वे अपनी पढ़ाई जारी रख सके.

आदिवासी समाज की लड़कियों को संघर्षपूर्ण जीवन से जूझना पड़़ता हैं, खासकर शहर की लड़कियों को अपनी पढ़ाई -लिखाई का खर्चा खुद से निकालना पड़ता है. 12-15 साल तक की होते ही लड़कियां कुछ ना कुछ अपने लिए काम खोज लेती हैं, ताकि उसके जीवन में किसी प्रकार का रोक-टोक ना हो, वे अपनी पढ़ाई अपने बल बूते जारी रख सकें. कुछ लड़कियां तो दूसरों के घर का काम कर के अपना और थोड़ा बहुत घर का खर्चा उठाती हैं, ताकि उनके माता-पिता को परेशानी ना हो. वे लड़कियां अपना जीवन अच्छी तरह से जीना चाहती हैं, लेकिन अधिकतर को यह नसीब नहीं होता. कुछ पढ़ पाती हैं, कुछ की यह स्थिति नहीं रहती कि वो आगे पढ़ाई और बढ़ा सके.

जिन लड़कियों को उसके माता-पिता शुरु में पढ़ाते हैं, उसका बढ़ता स्कूली खर्चा ज्यादा देखकर उससे स्कूल छोड़ने को कहते हैं और वह नहीं पढ़ पाती है. पढ़ाई के लिए वे दूसरों के घर काम करने पर मजबूर हो जाती हैं और काम करने लगती है, ताकि उसकी पढ़ाई बीच में ना छूट जाए. इस तरह काम के साथ अपना पढ़ाई-लिखाई को आगे बढ़ाती हैं, लेकिन कभी-कभी इतना कर के भी और आगे पढ़ नहीं पाती हैं. स्कूल ना जाकर मजदूरी करने लग जाती है. जिनकी आर्थिक स्तिथि खराब होती है, वो लड़कियां तो कभी पढ़ ही नहीं पाती हैं. उनके उपर माता पिता के साथ घर चलाने की जिम्मेदारी आ जाती है.

बड़े घरों की जिन लड़कियों को अच्छी तरह पढ़ने का मौका मिलता है, वैसी लड़कियां जीवन में तरक्की कर पाती हैं. स्कूल या काॅलेज में किसी प्रकार के कार्य के लिए राशि ली जाती हैं तो, वे अपने घर से ज्यादा पैसा मांग लेती हैं और उनको किसी प्रकार का कष्ट नहीं उठाना पढ़ता हैं. इसलिए वे नहीं जान पाती हैं कि उनके माता-पिता कितना संघर्ष करके पैसा कमाते है और अपने बच्चों को पढ़ाते हैं ताकि वे आगे चलकर अच्छा जीवन जी सके. लेकिन आदिवासी घरों की लड़कियां अपने माता-पिता का दुख-दर्द समझती हैं. और अक्सर पढ़ाई बीच में छोड़ घर चलाने में उनकी मददगार बन जाती हैं.

और इनत माम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद यदि कुछ लड़कियां पढ़ लेती हैं तो वह सामान्य शिक्षा होती है, तकनीकि शिक्षा प्राप्त करना अर्थाभाव के कारण वे प्राप्त नहीं कर पाती. इसलिए रोजगार भी नहीं मिलता और गहरे निराशा हाथ लगती है.

योजनाकारों को इन परिस्थितियों को समझते हुए योजना बनानी चाहिए और सरकारी स्कूलों को दुरुस्त करना चाहिए. निजी विद्यालयों और डिजिटल पढ़ाई का बोझ तो वे उठा नहीं सकती हैं.