अंबेदकर और गांधी ने अपने-अपने तरीकों से मनुवादी वर्ण व्यवस्था को बदलने के अनेकानेक प्रयास किये. अंबेदकर कहते हैं कि दलितों को पशुओं का चमड़ा निकालने का काम या अन्य निकृष्ट कोटि का का काम नहीं करना चाहिए. गांधी, विनोबा कहते हैं कि मलजल की सफाई, मृत पशुओं के चमड़े की निकासी, जैसे काम सवर्णों को करना चाहिए. तभी जात पात टूटेगा. लेकिन एक बार दसरों के श्रम पर जीने की लत लग जाये, तो वह आसानी से छूटने वाला है? रांची सहित पूरे देश में तमाम तरह के सफाई कार्य दलित और अब विस्थापन के मारे आदिवासी भी करते दिखेंगे. कोई शक हो तो रांची शहर में नगर निगम की सफाई व्यवस्था से जुड़े लोगों को देख लीजिये. सारी समस्या के मूल में है हिंदू वर्ण व्यवस्था जिस पर लंबे अरसे से बहस चलती आ रही है.

क्या आपने कभी आदिवासी समाज व्यवस्था को देखा है? आदिवासी गांवों को देखा है? उनकी स्वच्छता और सौंदर्य बोध के तो सभी कायल हैं, लेकिन आपने कभी यह समझने की कोशिश की है कि वहां यदि पशु मरता है तो उसको ठिकाने कौन लगाता है? वहां गलियों-कूचों की सफाई कौन करता है? दरअसल, वहां यह समस्या है ही नहीं. सभी मिल कर यह काम करते हैं. पशु मरा तो उसे जमीन में गाड़ दिया जाता है, या फिर कुछ लोग चमड़े की निकासी कर उसे बाजार में बेच देते हैं. लेकिन इस काम के लिए कोई समूह अलग से काम नहीं करता. आदिवासी गांव का कोई भी सदस्य यह काम कर सकता है और इस वजह से वह आदिवासियों में ‘दलित’ नहीं हो जाता. इसी तरह सफाई का काम परिवार का हर सदस्य करता है. इसलिए वहां सफाई कर्म कुंठा नहीं बनती. जबकि हिंदू वर्ण व्यवस्था में तमाम तरह के काम शूद्रों के जिम्मे कर दिया गया है. और वह वर्ण वादी व्यवस्था हमारी चेतना पर इस कदर प्रभावी है कि कोई शूद्र भी आर्थिक हैसियत प्राप्त करता है तो उम्मीद करता है कि उसका संडास साफ करने, उसके गली मोहल्ले की सफाई करने बाहर से सफाई कर्मी आयेंगे. अभिजात आदिवासी घरों ने भी कही जीवन शैली अपना ली है जो गैर आदिवासियों की होती है. एलिस एक्का ने तो इस पर एक मार्मिक कहानी ही लिखी थी.

बाबा साहब ने हिंदू धर्म छोड़ कर बौद्ध धर्म अपनाने की सलाह दी, लेकिन दलितों के एक बड़े वर्ग की ललक मंदिरों में घुसने की रहती है. मां, बहन की गाली वे उसी अंदाज में देते हैं, जैसे अगड़े. आदिवासी समाज में भी अब ऐसा एक छोटा तबका बन गया है जिसे लगता है कि यदि वह हिंदू बन गया या हिंदू के रूप में शुमार किया जाने लगा तो उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ेगी. वह हिंदू बना या नहीं, यह तो पता नहीं, लेकिन हिंदू दिखने के लिए कुछ ज्यादा ही हिंदू जैसा आचरण करने लगा है. एक बड़ी पहचान यह कि अपने यहां किसी भी तरह के कर्मकांड में ब्राह्मण पुजारी को बुलाने लगा है, दूसरे वह ‘दिकुओ’ की तरह धारा प्रवाह गाली गलौच भी कर सकता है, जबकि आदिवासी भाषाओं में उस तरह की गालियों का अस्तित्व नहीं.

जेहन में यह सवाल उठता है कि जब समाज आर्थिक आधार पर बंटने लगेगा तो क्या आदिवासी समाज में भी जातियां बनने लगेगी? कुछ की गणना ‘शूद्र’ के रूप में की जाने लगेगी? ऐसे समय में कह बात बरबस ध्यान में आता है कि काश गांधी और अंबेदकर जैसे महामानवों ने आदिवासी समाज व्यवस्था को थोड़ा सहृदयता से देखा होता तो वे मनुवादी वर्ण व्यवस्था का कोई बेहतर मार्ग दिखा पाते.