इतिहास की भूल भुलैये में कैसी कैसी कहानियां दफ्न हैं, यह देख रोमांच से भर जाता है हृदय. हम मान कर चलते हैं कि आदिवासी भारतीय उप महाद्वीप में पुरातन निवासी हैं, लेकिन कुछ आदिवासी समूह ऐसे भी हैं जो बाहर से इस देश में आये और यहां के परिवेश में रच बस गये.
हम यह भी जानते रहे हैं कि भारत से बड़ी संख्या में दुनियां के विभिन्न हिस्सों में भारतीय मूल के लोगों को गुलाम बना कर ले जाया गया. लेकिन कनार्टक के सिद्दी आदिवासी वे लोग हैं जिन्हें बाहर से गुलाम बना कर भारत लाया गया. 16 से 19वीं सदी के बीच पुर्तगालियों ने दक्षिण पूर्व अफ्रीका से बड़ी संख्या में बंटू समुदाय के आदिवासियों को गुलाम बना कर गोवा लाये थे. कुछ जहाजी बन कर और कुछ योद्धा बन कर भी इस इलाके में आये.
देशी राजे उन्हें अपना अंगरक्षक बनाते थे. अंग्रेजों से युद्ध में उन्होंने भारतीय राजे रजवाड़ों की मदद की. गोवा के अधिग्रहण के बाद इनमें से बहुतेरे गुलामी से मुक्त हो कर या भाग कर कर्नाटक के आस पास के जंगलों में पनाह ली और वहां बस गये. कुछ बगल के राज्यों में बसे. करीबन 18 हजार कर्नाटक में, 10 हजार के करीब गुजरात में और 12 हजार हैदराबाद में. वैसे, छिटपुट तो लखनउ, दिल्ली और कोलकाता तक में मिल जायेंगे. आजाद भारत में भी वे वर्षों उपेक्षित ही रहे. 8 जनवरी 2003 को इन्हें केंद्र सरकार ने अधिसूचित जनजाति की सूचि में शामिल कर लिया.
इन आदिवासियों की भाषा और धर्म आदि अब पहले जैसी नहीं रही. वे जहां बसे वहीं की भाषा अपना ली. कर्नाटक में द्रविड भाषा परिवार का कन्नड बोलते हैं. इनमें से कुछ रोमन कैथोलिक धर्म में चले गये, कुछ इस्लाम को स्वीकर कर लिया और कुछ हिंदू बन गये. कर्नाटक के हालियाब तालुका में ईसाई और मुसलमान सिद्दी रहते हैं, तो एलापुर और अंकोला के घाट क्षेत्र में हिंदू सिद्दी.
लेकिन अलग-अलग धर्मों में शामिल हो जाने के बाद भी, अपनी भाषा के विलुप्त हो जाने के बाद भी उनकी आदिवासियत खत्म नहीं हुई. वे अपने धार्मिक विश्वासों और गीत, संगीत और नृत्य के द्वारा न सिर्फ अपने मूल अफ्रीकी बंटू मूल से जुड़ते हैं, बल्कि विश्व आदिवासी समुदाय से भी. जीवन यापन के लिए ये खेती करते हैं और जंगल पर निर्भर हैं. वे मानते हैं कि उनके पूर्वज कभी मरे नहीं, आत्माओं के रूप में उनके आस पास रहते हैं. उन पर अपना स्नेह बरसाते हुए. जन्म, मृत्यु और विवाह जैसे संस्कारों में वे उनके साथ शामिल होते हैं. वे अपने पूर्वजों को याद करने और उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए नवरात्रि के दौरान हिरियातु पर्व मनाते हैं. किसी कारण नवरात्रि के दौरान नहीं मना पाये तो होली के वक्त. और यह त्योहार कमोबेस ईसाई और मुसलमान बन गये सिद्दी भी मनाते हैं.
नृत्य और गीत झारखंड के आदिवासियों से भिन्न जरूर है, लेकिन उसमें वही सामूहिकता, उल्लास और मस्ती है जैसा कि किसी भी आदिवासी नृत्य में. और उसमें बच्चे, युवा, वृद्ध सभी भाग लेते हैं.
धार्मिक विभाजन के बावजूद उन्हें आपस में विवाह करने से परहेज नहीं.
इनका अधिवास भी पहांड़, जंगल, प्राकृतिक झरनों से युक्त मनोहर वादिया ही हैं. ये भी परिश्रमी, निश्चछल हैं.