हर 15 अगस्त के आगे पीछे यह बहस छिड़ जाती है कि 15 अगस्त 1947 को जो आजादी मिली थी, वह सच्ची थी या झूठी थी. दो चार दिनों की बहस के बाद यह बहस फिर अगले 15 अगस्त तक के लिए मुल्तवि हो जाती है और जीवन बदस्तूर चलता रहता है. कुछ लोग आजादी का जश्न मनाते हैं, कुछ आजादी का शोक और एक बड़ी आबादी न जश्न मनाती है और न शोक. वह जीवन यापन के लिए मेहनत मशक्कत करती रहती है.

लेकिन इस विभाजित मनःस्थिति की वजह जीवन की परिस्थितियां होती हैं. समाज के प्रभु वर्ग के लिए हर दिन दिवाली है, वंचित जमात के लिए अमावस्या की रात जैसी. इससे परे की कुछ बातें जानने- समझने की है. मसलन, आजादी के बाद जबकि देश की एक बड़ी आबादी आजादी की खुशियां मना रही थी और उम्मीद से आने वाले कल को देख रही थी, वही दो राजनीतिक शक्तियां इस आजादी को झूठा बता रही थी. एक हिंदू महासभा और दूसरे कम्युनिस्ट. हिंदू महासभा, जिसका परवर्ती रूप जनसंघ और आज की भाजपा है, तो आजादी के दिन को काला दिवस बताते संकोच नहीं कर रही थी, दूसरे कम्युनिस्ट, जो इस आजादी को सत्ता का हस्तांतरण बता रही थी.

दोनों के अपने अपने कारण थे. हिंदू महासभा तो इस दिवस को काला दिवस इसलिए बता रही थी क्योंकि वह लालकिले पर तिरंगे की जगह भगवा झंडा लहाराते देखना चाहती थी. धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी गणतंत्र की जगह भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती थी. और कम्युनिस्टों को लगता था कि यहां रूसी क्रांति की तरह तो कुछ हुआ ही नहीं. न भीषण रक्तपात हुआ, न सामंतों को सूली पर चढ़ाया गया और न क्रातिकारी जमातों के हमसफरों में से ही कुछ को प्रति क्रांतिकारी करार देकर उनका कत्लेआम किया गया. कही इस तरह क्रांति होती है? यहां यह बात भी जानने की है और लोग जानते भी हैं, कि महासभा हो या कम्युनिस्ट, दोनों ने आजादी के संघर्ष में कोई बड़ी भूमिका नहीं निभाई. इन दोनों समूहों के अलावा अमूमन समाज के सभी तबकों ने आजादी को एक खुशी के अवसर के रूप में देखा. भारतीय इतिहास के एक बड़े दिन के रूप में लिया. केवल इसलिए नहीं कि करीबन डेढ़ दो सौ वर्षों तक भारत पर शासन करने वाले अंग्रेज एक सुबह बोरिया बिस्तर समेट कर यहां से चले गये, बल्कि इसलिए भी कि

  • यह इतिहास की एक बड़ी छलांग थी. यदि हम माने कि ज्ञात इतिहास ईसा पूर्व छठी शताब्दी यानि महामना गौतम बुद्ध के समय से शुरु होता है, तो उस समय से अंग्रेजों के आने तक देश में राजशाही थी. राजतंत्र का दौर था, जिसमें राजा की इच्छा ही संविधान था. आम जन उसके रहमो करम पर जिंदा प्रजा. कुछ राजा अच्छे होते थे कुछ बुरे, लेकिन कुल मिला कर वह राजतंत्र का युग था. जबकि आजादी के बाद देश में वयस्क मताधिकार पर केंद्रित संसदीय प्रणाली व लोकतंत्र की स्थापना हुई.

  • हमें समता, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की मूल अवधारणा पर केंद्रित संविधान मिला. कुछ मौलिक अधिकार मिले, वे मौलिक अधिकार जिसे हासिल करने के लिए फ्रांस की जनता को अपूरणीय क्षति उठानी पड़ी थी. महिलाओं को वोट का अधिकार प्राप्त करने के लिए अनेकानेक देशों में लंबा संघर्ष करना पड़ा, जबकि आजाद भारत में यह शामिल था.

  • बहुत सारे लोग भारतीय लोकतंत्र द्वारा उपलब्ध बुनियादी अधिकारों का मजाक उड़ाते हैं, लेकिन हमारे साथियों ने उन्हीं सिमित अधिकारों की बदौलत इंदिरा गांधी के आपातकाल का विरोध किया था. एमरजंसी को बैलेटबाॅक्स की ही मदद से उखाड़ फेंका था इस देश की जनता ने. और वर्तमान में चल रहे संघ की तानाशाही का भी विरोध भी भारतीय लोकतंत्र द्वारा प्रदत्त अधिकारों के द्वारा ही होगा.

विडंबना यह कि जो आजादी को मिथ्या कहते थे, संसदीय प्रणाली का विरोध करते थे, उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया. मुट्ठी भर माओवादियों को छोड़ तमाम कम्युनिस्ट पार्टियां संसदीय प्रणाली का हिस्सा बन चुकी हैं और जो महासभा भारतीय संविधान और झंडे का अपमान करने से बाज नहीं आती थी, वे ही अब इसे छाती से लगा कर रखते हैं, क्योंकि उन्हें सत्ता के शीर्ष तक उसी ने पहुंचाया है.

तो, चूक कहां हुई?

चूक यह कि इस संसदीय प्रणाली और लोकतंत्र की कटु आलोचना करने वाले अधिकतर लोग उस व्यवस्था के गर्भनाल से जुड़े हैं जो शोषण और उत्पीड़न पर ही टिकी हुई है. चूक यह हुई कि क्रांति की झोक में हम यह भूल गये कि हमे समाज को साथ लेकर आगे बढ़ना है. हम खुद तो क्रांतिकारी बन गये, लेकिन इस चक्कर में अपने ही समाज से कटते चले गये. चूक यह कि शोषण और उत्पीड़न पर टिकी इस व्यवस्था को बदलने का जमीनी संघर्ष निरंतर सिमित होता जा रहा है, अधिकतर संघर्ष इसी व्यवस्था में शामिल होने या उसमें हिस्सेदारी की रह गयी है.

चूक यह कि हम आज भी यह समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं कि यदि 70 से 80 फीसदी वंचितों की जमात है, तो मुट्ठी भर शातिर लोग हम पर शासन कैसे कर रहे हैं. चूक यह कि हम आज भी जात पात के बंधनों से जकड़े हुए हैं. नस्लवाद की आलोचना करते हैं, लेकिन नस्ली भावना हममे भी कम नहीं. शुद्ध रक्त की बात उन्हीं की तरह करते हैं जैसे संघी. अपनी जाति का कोई अफसर बनता है तो खुश होते हैं और यह भूल जाते हैं कि वह अफसर अब ब्यूरोक्रैशी का हिस्सा हुआ और हमारा नहीं रहा. बेटी, वोट जात को आज भी सबसे मान्य नारा है.

चूक यह भी कि कट्टर -पुनरुत्थानवादियों का झंडा एक है- भगवा-, लेकिन धर्मनिरपेक्ष जमात का झंडा लाल, हरा और नीले में बंटा हुआ है.

हम आज के हालात के लिए आजादी या उसके लिए संघर्ष करने वालों को दोष नहीं दे सकते. अपने सपनों का भारत बनाने की जिम्मेदारी बाद की पीढ़ी की थी. यदि समता और न्याय की मूल भावना पर आधारित समाज व्यवस्था नहीं बना सके, विषमता और गरीबी नहीं खत्म कर सके तो जिम्मेदार हम खुद हैं. वह आजादी असली थी या नकली, इस पर मगजमारी करना अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से भागना है.