सोशल मीडिया में अक्सर लोग सरकारों को कोसते नजर आते हैं. खास कर जब से झामुमो के नेतृत्व में झारखंड में सरकार बनी है, यह एहसास तीव्रता से प्रगट होने लगा है कि यह सरकार आदिवासी हित में कुछ खास करती नजर नहीं आ रही. सीएनटी और एसपीटी एक्ट के होते आदिवासी जमीन का अतिक्रमण और लूट जारी है, पेसा कानून को जमीन पर नहीं उतारा जा रहा है, डोमेसाईल नीति में संशोधन और सुधार यह सरकार नहीं कर पा रही है, पढ़ा लिखा बेरोजगार आदिवासी दरदर भअक रहा है और बहिरागत नौकरी हड़प रहे हैं, आदि.. .आदि. दरअसल ऐसे लोग इस दिवास्वप्न में थे कि अपनी सरकार बनते ही सब कुछ बदल जायेगा. वर्षों से चली आ रही समस्याओं को समाधान चुटकी से हो जायेगा. वे इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं कि ‘सरकार’ बदलने से ‘व्यवस्था’ नहीं बदलती. सिस्टम नहीं बदलता.

नस्ली भावना यह भी है कि आदिवासियों को गैर आदिवासी सरकारें लूटती रही हैं. आदिवासियों की अपनी सरकार बनेगी तो आदिवासी हित में काम होने लगेगा. विडंबना देखिये कि पेसा कानून वाले क्षेत्र में राज्यपाल सर्वाधिक शक्तिशाली होता है और झारखंड में लंबे अरसे तक राज्यपाल के पद पर भी एक आदिवासी महिला काबिज रहीं. फिर भी सच पूछिये तो आदिवासी हित में कोई एक भी बुनियादी काम नहीं हुआ. ग्राम सभा की सर्वोच्चता कायम नहीं हुई.

कुछ लोगों को बड़ी शिकायत है कि एक बड़े आंदोलन की कोख से निकली झामुमो, झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन के रहते आदिवासी वोटरों की जो अपेक्षा थी, वह पूरी नहीं हो रही. यह सरकार पूर्ववर्ती रघुवर सरकार से बेहतर है. उसने अच्छा प्रशासन दिया है. कोरोना काल में भाजपा शासित सरकारों से बेहतर काम किया है. मजदूरों की हितैषी है. तृतीय और चतुर्थ संवर्ग में भी शत प्रतिशत आदिवासियों मूलवासियों की बहाली अब तक सुनिश्चित नहीं हो पायी है.

इसका दो अर्थ हुआ. एक तो आदिवासी नेतृत्व वाली सरकार होने के बावजूद यह जरूरी नहीं कि वह आदिवासी हितो को सर्वोपरी रखे और उसके लिए काम करे. उससे बड़ा अर्थ यह हुआ कि व्यवस्था के आगे व्यक्ति विशेष या सरकारें बौनी है. सूत्र वाक्य में कहें तो संसद या विधानसभा से क्रांति की उम्मीद न करें और ‘क्रांति’ यानि व्यवस्था में गुणात्मक व तीव्र परिवर्तन के बगैर आम आदमी की समस्याओं का हल निकलना मुश्किल है.

क्या यह सरकार मजदूरों का हितैषी होने के बावजूद श्रम कानूनों में निराशाजनक हुए परिवर्तनों को सुधार सकती है? क्या वह मानसिक और शारीरिक श्रम के वेतन के विशाल अंतर को कम कर सकती है? यह शिक्षक का वेतन 60 हजार और एक नरेगा मजदूर का वेतन मासिक 7 हजार क्यों हो? हमारे राज्य में तो एक विशाल आबादी का जीवन यापन दिहाड़ी पर खट कर चलता है. शारीरिक श्रम को बेच कर चलता है. यह सवाल आपके मन को कभी छूता है कि दुनियां में सबसे कम मजदूरी वाला देश भारत क्यों है?

और इन सवालों को सरकारें हल नहीं कर सकती. यह तो वंचित जमात की एकता और संघर्ष से ही हल हो सकती है.

छोड़िये इन बातों को. आरक्षण और जातिगत राजनीति में मुक्ति तलाशने वालों को परे रख कर यह बताईये कि यह सरकार डोमेसाईल नीति में बदलाव क्यों नहीं संशोधन कर रही? याद रखियें, यह छोटी सी बात भी यह सरकार नहीं कर सकती तो उसकी वजह यह कि उसने जिस दिन ऐसी कोशिश भी की तो उसका पतन हो जायेगा. सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने के बावजूद यह सरकार कांग्रेस और राजद के समर्थन से टिकी है. और इन पार्टियों का जनाधार जिन लोगों में है, वे डोमेसाईल नीति के खिलाफ हैं.

इसलिए दलगत संसदीय राजनीति की सीमाओं को पहचानिये. इस सरकार की अपनी सीमाएं हैं. इतने से संतोष कीजिये कि यह सरकार भरसक बेहतर सरकार है जहां कम से कम लोगों की व्यक्तिगत आजादी भरसक सुरक्षित है. काम काज भरसक संविधान सम्मत तरीके से हो रहा है. दंगाई थोड़े काबू में हैं. और बुनियादी सवालों का हल तो वंचित जमात की एकता और संघर्ष से ही होगा. जो इस व्यवस्था से लाभ में हैं, वे तो यथा स्थिति को बनाये रखना चाहेंगे. संघर्ष तो उन्हें करना है जो इस व्यवस्था में शोषित और उत्पीड़ित हैं.