सफाई (झाडू देना, गंदगी ढोना, टॉयलेट साफ करना) उत्पादक श्रम है या नहीं? इस सवाल पर समाज और सरकार, दोनों स्पष्ट नहीं हैं। जो स्पष्ट होने का दावा करते हैं वे क्या यह देख सकते हैं या समझते हैं कि आजादी के 72 साल में सफाई के श्रमशास्त्र, विज्ञान-तकनीक, गतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र या सांस्कृतिक दर्शन में कोई परिवर्तन - गुणात्मक परिवर्तन - आया है?

जैसे, सफाई के काम में झाड़ू बुहारना शामिल है। किसी जगह को साफ करने या रखने के लिए झाड़ू बुहारना जरूरी और अनिवार्य कर्म माना जाता है। यह काम शारीरिक श्रम द्वारा ही संभव है। पूर्व में यह तो शुद्ध और ठेठ अर्थ में एक शारीरिक श्रम था। इस श्रम में शरीर की ऊर्जा का व्यय होता था। इसलिए विज्ञान में यह विचारणीय प्रश्न बना कि सफाई के इस कार्य में शरीर की ऊर्जा का व्यय कम हो, लेकिन परिणाम बराबर हो, इसके लिए क्या कुछ किया जा सकता है? तब झाड़ू की कई किस्में आयीं।
सरकारी स्तर पर हो या गैर-सरकारी स्तर पर, पेशा के संदर्भ में ‘स्वीपर’ पद पर आज भी जन्मना दलित (या महादलित) माना जाने वाला व्यक्ति ही नियुक्त होता है, नियुक्त किया जाता है या सही शब्दों में कहें तो दलित ही स्वीपर का कार्य करने को तैयार होता है। इससे भी सही अर्थ व्यक्त करने वाला वाक्य यह है कि स्वीपर के पद पर कोई गैरदलित बहाल होने को तैयार नहीं होता।

स्वीपर के पद पर बहाल व्यक्ति के जीवन और अनुभव को सूत्रबद्ध किया जाय तो यह किसीको भी दिख सकता है कि उसके माता-पिता दादा-दादी, नाना-नानी भी स्वीपर थे और उसके बच्चे भी स्वीपर होंगे। इसका माने यह है कि किसी ‘स्वीपर’ का दलित बने रहना या दलित बनाये रखने की परम्परा इसलिए चल रही है कि सफाई का कार्य ‘जरूरी’ है और इसे निरंतर चलाने और किये जाने पर ही किसी समाज का विकास संभव है, लेकिन इसके लिए (अनिवार्यतः आवश्यक सफाई के कर्म के लिए) समाज या सरकार का कोई भी कर्मी-समूह सफाई-कर्म को बतौर ‘नौकरी’ करने को तैयार नहीं है?

समाज या सरकार का संचालन एवं नियंत्रण करने वाले वर्ग (प्रभुवर्ग!) कहते हैं कि स्थितियों में परिवर्तन आया है। स्वीपर के पद पर अब गैरदलित भी नियुक्त हो रहे हैं - वे स्वीपर की नौकरी करने को तैयार हो रहे हैं।

इसे अच्छी बात मानी जा सकती है। लेकिन यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि अब स्वीपर के पद पर गैरदलित नौकरी करने को क्यों तैयार हो रहे हैं। क्या इसलिए कि समाज में या सरकार में अन्य नौकरी या रोजगार के अवसर नहीं हैं? क्या इसलिए कि समाज में अन्य पेशों या रोजगारों में उनको नौकरी नहीं मिल रही है? क्या इसलिए कि सफाई-कर्म अब एक नौकरी है जिसमें अन्य सरकारी नौकरियों की तरह जिम्मेदारी और जवाबदेही किसी अन्य अधिकारी की होती है? काम न करने या विलम्ब से करने आदि के लिए सम्बद्ध कर्मचारी को निलंबित करने या नौकरी से निकाल देने जैसे अधिकार जवाबदेह अधिकारी के पास होते हैं, लेकिन समय पर सफाई न होने की वजह से जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई कैसे हो सकती है, उसकी भरपाई होनी चाहिए या नहीं, इसके लिए जवाबदेह अधिकारी को सिर्फ पश्चाताप की बजाय प्रायश्चित करना होगा या नहीं, ऐसे सवाल विचारणीय नहीं हैं?

क्या सफाई जैसे काम के संदर्भ में अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक की मूल धारणा यह है कि ‘नौकरी’ और ‘सफाई का काम’ दो अलग-अलग बातें हैं? सफाई हो न हो नौकरी पक्की रहे - यह स्वीपर की सोच होती है। अधिकारी की समझ यह होती है कि सफाई तभी संभव है जब नौकरी जाने या पैसा न मिलने का ‘डर’ तलवार की तरह स्वीपर के दिल-दिमाग पर लटका रहे। सरकार ने उसे सफाई करने की नहीं, करवाने की यानी करनेवाले स्वीपर पर ‘कंट्रोल’ करने की जिम्मेदारी दी है। इसलिए अधिकारी इसे ही अपना कर्तव्य समझता है कि वह हर समय उस डर की तलवार को ज्यादा से ज्यादा सान देता रहे। इसे ही वह अपना दायित्व समझता है। क्या उसको इस बात से कोई मतलब होता है कि सफाई होना जरूरी है, समय पर होना जरूरी है या कि कितनी सफाई हुई? कितनी सफाई नहीं हुई यह वह देखता है, लेकिन क्यों नहीं हुई इस पर वह समग्रता से सोचने को बाध्य होता है? वह न सोचे ऐसा कोई नियम नहीं है, लेकिन बाकी कई नियम ऐसे ही आशय प्रगट करते हैं। इसलिए यह देखना और उसका तत्काल समाधान करना भी वह जरूरी नहीं समझता कि किस तरह से सफाई का काम हो रहा है, सफाई करनेवाले को किस तरह की भौतिक परेशानी और मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ रहा है, उस परेशानी और पीड़ा को किसी उपाय या तकनीक से कितना कम किया जा सकता है? जो अधिकारी यह देखना जरूरी मानता है, वह समाधान के रूप में यह ‘सफाई’ पेश करता है कि इसके समाधान का अधिकार उसके हाथ में नहीं है। यह किसी अन्य के हाथ में है। वह अक्सर कहता है कि ‘यह ऊपर के उससे बड़े अधिकारी या सरकार के हाथ में है या कि यह नीतिगत सवाल है। इसका जवाब वह नहीं दे सकता।’ जिस सवाल का जवाब देने का अधिकार उसके हाथ में नहीं है, उस सवाल पर वह सोचे ही क्यों? सोचे भी तो इस पर वह अपने ऊपर वाले को सोचने और फैसला करने को कैसे कह सकता है? यह उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। अधिकार के बिना सोचकर और ऊपर वाले को सोचने को बाध्य करना उसका अधिकार नहीं है तो वह क्यों ऊपर वाले को सोचने को प्रेरित करनेवाले काम के पचड़े में फंसे? व्यवस्था ऐसी है कि वह यह काम अपना नागरिक कर्तव्य मानकर करेगा तो उसकी अपनी नौकरी पर आफत आ सकती है। इसलिए वह सोचता ही नहीं।

ऐसी स्थिति में क्या किसी ‘दलित’ के ‘स्वीपर’ रहते हुए उसके परिवार और उसके खुद की जिदंगी में कोई परिवर्तन या प्रगति संभव है? दलित समुदाय का बरसो का आम अनुभव यह है कि अगर संभव है भी तो इस बाबत ‘सरकार’ कुछ नहीं करती। ‘सफाई’ के लिए किसी को स्वीपर बने रहने या बनाये रखने की परम्परा उस इन्सान की मजबूरी के इस्तेमाल के सिवा कुछ नहीं है। अगर सरकार या समाज ‘सफाई’ को अनिवार्य आवश्यकता मानते होते तो उन्हें अपने आप से यह पूछना ही होगा कि क्या ‘स्वीपर’ को सफाई कर्म करते हुए अपने और अपने परिवार के लिए आर्थिक सुरक्षा पाने, सम्मानजनक जिदंगी जीने के लिए आर्थिक सुविधा सहित वांछित उपकरण-उपस्कर सुविधा पाने और अपने सृजनशीलता को निखारने का अवसर पाने का अधिकार है या नहीं? इसके लिए सरकार का दायित्व क्या है? क्या सरकारी तंत्र ने आज तक इस सवाल पर सोचना स्वीकार किया है कि कोई सरकारी सफाई कर्मचारी सफाई का कार्य करते हुए भी अपने और अपने परिवार का कार्य करते हुए भी अपने परिवार के उत्थान या प्रगति के लिए इस तंत्र में ‘प्रमोशन’ कैसे पायेगा?

अब तक तो सिर्फ यह दिखता है कि ‘सफाई’ का काम जरूरी है और इसके लिए किसी भी स्वीपर को ताजिदंगी (उसकी अगली पीढ़ी को भी) उसी तरह - उसी तंत्र, प्रक्रिया और परम्परा के अधीन - काम करने को विवश रहना पड़ेगा। या फिर उसे अपने ‘पेशे’ को छोड़ना होगा, लेकिन उसके लिए समाज में अवसर नहीं के बराबर हैं। क्या यह कहना अधिक युक्तिसंगत नहीं होगा कि समाज या सरकार उसे यह ‘अवसर’ नहीं देना चाहते, क्योंकि तब वे इस सवाल में फंसेंगे कि ‘सफाई’ का काम कैसे चलेगा, जो कि नितांत जरूरी है? शेष अगले अंक में