हमारे देश में स्त्रियों को महिमामंडित करने वाले कई रीति रिवाज एवं पर्व त्योहार हैं जिनमे रक्षा बंधन भी शामिल है. निःसंदेह इस त्योहार में भाई बहन का प्यार समाहित है, इसमें कोई दो राय नहीं, परन्तु इस त्योहार में “रक्षा“ शब्द का तात्पर्य स्त्रियों के कई अप्रत्यक्ष एवं अदृश्य मामलों से जुड़ा हुआ है. सवाल यह है कि स्त्रियों को सुरक्षा क्यों चाहिए? क्या इसलिए कि हमारा समाज पुरूष प्रधान है? यह सर्वविदित है कि महिलाओं का बलात्कार होगा ही, घर से धक्के मार कर निकाली जाएँगी ही, संपत्ति से बेदखल भी रहेंगी, अपने भाई की शिक्षा के लिए खुद अधूरी शिक्षा प्राप्त करेंगी, बच्चों के लालन पालन एवं पति कमा सके, इसलिए सारे समझौते करेंगी, अपने अरमानो का गला घोंट देंगी? और अगर साहसी हों तो प्रतिवाद करेंगी या सारे बंधन तोड़कर भाग जाएँगी.
परन्तु बाहर तो की दुनियाँ तो और भी भयावह ह्रै.
दिनांक 20 अगस्त को कर्नाटका की भटकी हुई एक युवती को सही जगह तक पहुंचाने के लिए मुझे सौंपा गया. सही जगह की तलाश में मेरे सहयोगी खादगढ़ा स्थित रैनबसेरा पहुँचे. वहाँ कि स्थिति देख यह अंदाजा लग गया कि वहाँ छोड़कर आने से इस युवति का क्या हश्र होगा. इसके बाद हमने वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर की इंचार्ज से अनुरोध किया. उन्होंने यह कहा कि रूकिए, देख कर बताते हैं कि वहाँ कोई है कि नहीं. मैं ने फिर फोन किया, तब जवाब मिला कि आप किसी जिला अधिकारी से बात कीजिए. मैने किया. उन्होंनें कहा कि आप देखिए कहाँ रखवाएंगी, कुछ नहीं होता है तो रामगढ् स्वधार होम ले जाइए. मैंने अनुरोध किया कि सिस्टम का कोई भी अंग युवति को मुझसे ले ले और जो भी कानूनी प्रक्रिया करनी हो करे. सुबह से रात होने को थी . वह घर नहीं जाना चाहती, क्यों? इसका भी एक अलग पहलू है. वह घर से भागी थी. हावड़ा होते राँची पहुँची थी. भूखी प्यासी, पढ़ी लिखी और समझदार. आखिरकार मैंने रामगढ़ स्वधार के इंचार्ज से बात किया. उन्होंने कहा कि आपके जिला से पत्र लेकर आइए. मैंने फिर राँची के पदाधिकरी से बात की. उन्होंने कहा कि मैं क्यों पत्र दूँ, आप सीधा ले जाएँ. मैंने जब स्वधार को यह जवाब बताया तो उन्होंने इन्कार कर दिया.
हार मानकर मैं महिला थाना पहुंची. इंचार्ज को बुलाया गया वे आई. बातों को सुना और अपने वरिष्ठों को फोन लगाया. उनके चेहरे का भाव देखकर अंदाजा लग गया कि यहाँ भी कुछ नहीं हो सकता. थाना इंचार्ज के सामने युवति को लाया गया. मैंने इंचार्ज से पूछा इसकी क्या गलती है, सिर्फ इतना कि यह घर से भागी है. परन्तु जो देश देवालयों से पटा पड़ा है, वहाँ बाहर के लोग इसे नोंच खाएँगे, एक न्यूज हेडिंग पढ़ने को मिलेगा- “एक युवति की लावारिस लाश मिली“. बस सब खत्म. आखिरकार उनका दिल पसीजा और उन्होंने उसे रख लिया. इस पूरे दिन के साथ में मैं उसमें अपनी बेटियों का अक्स देखती रही. वह भी रो पड़ी मैं भी. मैंने उसके हाथ में 500 का नोट पकड़ाया, इंचार्ज को हाथ जोड़कर कहा कि जो कुछ भी हो इसके इच्छा के अनुसार इसके पुनर्वास का प्रबंध किजिएगा, नहीं तो मुझे ही सौंप दीजियेगा. उन्होने कुछ नहीं कहा.
ऐसी कई हैं जो संकट से उबरने के लिए घर से कदम निकालती हैं और महासंकट में फँस जाती हैँ.. सिस्टम का सवाल पूछने का तरीका भी कम दर्दनाक नहीं है. इन्हें सोचने का समय मिले, अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका मिले, सुरक्षा मिले इसके लिए एक जीवंत एवं समेकित पुनर्वास केन्द्र की स्थापना जरूरी है.