आम भारतीय को यह समझाया जाता है कि देशी-विदेशी निवेश रसगुल्ला है जिसमें रस ही रस भरा है. लेकिन हकीकत में निवेश ऐसा ब्लॉटिंग पेपर है जो हमारी अर्थ व्यवस्था, खास कर गरीब जनता का सारा सत्व खींच कर उन्हें पहले से ज्यादा भीषण स्थिति में पहुंचा देता है. देशी-विदेशी निवेश माने निजी कंपनी यहां पूंजी लगायेगी, कारखाना बैठायेगी.

लेकिन वह ऐसा भारतीयों के कल्याण के लिए नहीं, शुद्ध मुनाफे के लिए करेगी. उसे सस्ते दर पर जमीन चाहिए, मिट्टी के मोल खनिज संपदा चाहिए, सस्ता श्रम चाहिए, पानी, बिजली चाहिए. मोदी जी कुछ वर्ष पूर्व जापान को यही सब कह कर आये थे. बेशर्मी से यह कह कर आये हैं कि आपके यहां तो आर्थिक लेवेल उंचा है, यानी हर चीज मंहगी. श्रम महंगा, जमीन महंगी, खनिज संपदा मंहगी, इसलिए उत्पादन कॉस्ट ज्यादा. मेरे यहां आईये. हमारी अर्थ व्यवस्था अभी लो लेवल की है. यानी सब कुछ सस्ता. जमीन सस्ता, खनिज सस्ता और मानवीय श्रम. पूछिये मत, वह तो आपके यहां से बहुत ज्यादा कम.

और सबसे ज्यादा फायदे की बात यह कि 30 करोड़ से भी बड़ा खाता पीता मध्यम वर्ग जो आपका माल, फ्रिज, टीवी, मंहगी गाड़ी, मोटर साईकल, मोबाईल सब कुछ खरीद लेगा. ..और घबड़ाईये मत. हम तेजी से उदारीकरण की प्रक्रिया चला रहे हैं. आपको अब कही किसी तरह का सरकारी अवरोध नहीं मिलेगा, लाल रीबन नहीं दिखाई देगा. हर तरह लाल कारपेट ही कारपेट. यानी, मुनाफा ही मुनाफा. विडंबना यह कि झाररवंड सरकार के शीर्ष अधिकारी भी हाल में दिल्ली में उद्योगपतियों के जमावड़े को यही सब कह कर आये हैं. आईये हमारे यहां. यहां मानव श्रम सस्ता है. मजदूर संतोषी हैं, कहीं कोई असंतोष नहीं. खनिज संपदा है, पहाड़ है, नदियां हैं. अच्छा वातावरण है.

सवाल है जनता को क्या मिलेगा? उसे उम्मीद है कि कल कारखाना लगेगा तो उसमें कुछ रोजगार. लेकिन कैसा रोजगार? गौर से देखिये. आज कल किसी निजी प्रतिष्ठान में नियमित नौकरी बेहद कम होती है. कुछ टेक्नोेक्रैट, कुछ बाबू ही नियमित नौकरी पाते हैं. और काम तो ठेका श्रमिक करते हैं. सरकार ने इसीलिए तमाम श्रम कानूनों को खत्म कर दिया है.

तो फायदा देशी-विदेशी कंपनी को है, दलाल सरकार और उसके हुक्मरानों को है. जनता को तो हर तरफ से नुकसान ही नुकसान. जल, जंगल, जमीन, छिनेगा. खनिज संपदा मिट्टी के मोल वे लेंगे. रोजगार के नाम पर मिलेगा ठेका मजूर का जीवन.

कोई शक हो तो मारुति कारखाने के मजदूरों के हालात देखिये. अपने यहां चल रहे स्पंज आईरन कारखानों में काम करने वाले आदिवासी मजूरों का रूप रंग देख आईये, तीसरी दुनियां के मुल्कों का हाल जरा जानिये, विदेशी पूंजी और निवेश का मतलब समझ में आ जायेगा. अब तक के औद्योगिक विकास का हाल नहीं देखा है? किस तरह अमीरी बढ रही है और दूसरी तरफ गरीबी और झोपड़ पट्टियां.

पूछेंगे, उपाय क्या है? उपाय यह कि सब कुछ तो है ही- जमीन, खनिज संपदा, मानव श्रम, रही पूंजी तो वह भी खुद जुटाईये. अब तक का औद्योगिक विकास किसने किया? बड़े-बड़े स्टील कारखाने, बड़ी-बड़ी सिंचाई परियोजनाएं, रेलवे ट्रैक और सड़कों का जाल, किसने बनाया? सरकार ने ही न? सार्वजनिक पूंजी से ही न? बस नीयत साफ चाहिए. अपनी पूंजी, जनता की गाढ़ी कमाई ऐय्याशी में मत उड़ाईये. उससे सार्थक, दूरगामी फायदे वाला काम कीजिये.