आदिवासी न हिंदू है और न ईसाई. उसका अपना धर्म है जिसे हम संक्षेप में प्रकृति पूजक कह सकते हैं. लेकिन धीरे-धीरे उन पर हिंदू और ईसाईयत का प्रभाव पड़ रहा है और दोनों उन्हें सांस्कृतिक रूप से खोखला और आर्थिक रूप से विपन्न बना रहे हैं. उसकी जमीन की लूट कर रहे हैं. हिंदुओं ने तो प्रचारित यह कर रखा है कि ‘सरना-सनातन एक है’, ईसाई यह नहीं कहते लेकिन वे यह कहते हैं कि वे सेवा करने आये हैं. लेकिन दोनों ही आदिवासियों की जमीन लूट रहे हैं.
यदि सरना सनातन एक है तो धर्म की आड़ में आदिवासियों को क्यों लूट रहे हो? हमारी बस्ती सहित पूरे रांची शहर में आदिवासियों की जमीन पर यह गैर आदिवासियों की कालोनियां कैसे बन रही हैं? पूरा हथिया गोंदा इलाका मुंडा और उरांव आदिवासियों का था, अब चारो तरफ गैर आदिवासियों की ही कालोनियां-घर, दुकान, बाजार दिखते हैं. यह कैसे हो रहा है?
इसी तरह आदिवासी समाज पर ईसाई धर्म का प्रभाव पड़ता जा रहा हैं, धीरे-धीरे आदिवासी गाॅव व बस्ती में ईसाई धर्म पैठता जा रहा हैं. पहले के बूढ़,े बुर्जूग लोग कहते थे कि ईसाई लोग गरीबों की सेवा व जो भी मदद हो पाता वो करते थे, गरीब बच्चो को निशुल्क पढाते थे एवं गरीबों के नाम पर संस्था चलाते थे. पर आज गौर से देखा जाए तो बस ईसाई धर्म के नाम पर पढ़ाई का व्यापार चल रहा है. सेवा के नाम पर लूट हो रही है.
उदाहरण के रुप में अपनी छोटी सी बस्ती झिरगा टोली की बात को सामने रखना चाहती हूं जो कांके रोड़ में स्थित है. इसका पूरा क्षे़त्र आदिवासियों का था, परन्तु अब इसका आधा भाग ईसाईयों का हो चुका हैं. यहां की सारी जमींन आदिवासियों की थी. पर धीरे-धीरे इस बस्ती का अब आधा से ज्यादा हिस्सा में क्रिश्चियन लोग बस गये. सबसे पहले एक छोटा सा स्कूल बना. उस स्कूल में आदिवासी बच्चों को निःशुल्क वे पढ़ाते थे. और साथ ही आदिवासियों की खेती में मदद भी करते थे. उस स्कूल के आस-पास आदिवासियों की जमीन थी.
अचानक कही से एक फादर आये और जिसकी जमीन थी, उससे बात कर के जमीन को आदिवासियों से खरीद लिया. यह जमीन तीन बस्ती की थी- झिरगा टोली, पतरा गोंदा व खूटा टंगरा. उस जमीन पर एक अंग्रेजी माध्यम का स्कूल बनना शुरु हो गया. सारे मजदूर बस्ती के थे. और आज भी कभी काम होता है तो बस्ती के मजदूर जाते हैं. कुछ वर्ष बाद वहां इग्लिश मीड़ियम स्कूल बन कर तैयार हो गया. स्कूल बनने के बाद एक छोटा सा स्कूल जिसमें आदिवासी बच्चों की पढ़ाई चलती थी, वह बन्द कर दिया गया. पढाई बन्द होने के बाद सभी आदिवासी बच्चे हाथिया गोंदा बस्ती के एक सरकारी स्कूल में दाखिला करवा लिया.
इस इग्लिश मीडियम स्कूल में बस्ती के एक भी आदिवासी बच्चे ने दाखिला नहींे करवाया, क्योंकि उस स्कूल में नामांकन करवाने के हजारों रु लगते थे. और आदिवासी समाज की आर्थिक स्थिति उतनी ठीक नही हैं कि वे बच्चो को उस स्कूल में भेज सके. मिशन स्कूल बनने के पश्चात बड़ी रफ्तार से क्रिश्चियन लोगांे का आगमन होना शुरु हो गया. और आज स्कूल के चारो ओर वे लोग बस गये हैं.
और उस स्कूल में क्रिश्चियन लोग के बच्चे ही सामान्यतः पढते हैं. उस स्कूल की फीस 30000 से शुरु होकर लाखों में ही अंत होती होगी. बस बस्ती की एक महिला, जिसका आधा हिस्सा जमीन लिया था, उसको स्कूल की साफ-सफाई के लिए रखा. जमीन लेने ओर इमरात बनने तक सभी अच्छे स्वभाव से आदिवासियों के साथ बात चीत करते थे. अपने सभी कार्यक्रम में शामिल करते थे. अब वे अपने कार्यक्रमों में गरीब आदिवासियों को बुलाते लज्जा महसूस करते हैं.
एक बात यह भी है कि इस तरह के स्कूल, काॅलेज के हाॅस्टल में ईसाई बच्चों को ही रखते है या अन्य जातियों के धनी वर्ग के बच्चों को. गरीब आदिवासियों के लिए उसमें जगह नहीं.