आज कल हुंकार, जयघोष बहुत हो रहा है. हर वक्त लगता है कि किसी शत्रु से हम युद्ध में हैं. लेकिन वहां यह स्पष्ट नहीं होता कि दरअसल हमारा दुश्मन है कौन? उसकी पहचान हम कैसे करेंगे? दुश्मन या मित्र को ही पहचानेंगे कैसे?

उसकी,

  • नस्ल से
  • वर्ण से
  • जात से
  • धर्म से
  • लिंग, रंग से
  • या उसकी आर्थिक हैसियत से

कैसे?

और यदि दुश्मन की पहचान नहीं करेंगे तो उससे लड़ेंगे कैसे?

ऐसे वक्त जेपी आंदोलन के समय से या उसके भी पहले का एक भूला-बिसरा नारा याद आ रहा है जो बहुत ही आसानी से दुश्मनों की पहचान करता है. नारा है, आपने सुना भी होगा- ‘कमाने वाला खायेगा, लूटने वाला जायेगा, नया जमाना आयेगा’

कमाने वाला, यानी अपने श्रम का खाने वाला. लूटने वाला माने परजीवी, दूसरे के श्रम का शोषण कर खाने वाला, सिर्फ लूट-पाट और सड़क पर छिनतई करने वाला नही. वह जो जल, जंगल, जमीन, खनिज संपदा, सार्वजनिक पैसे की लूटपाट करता है. वह जायेगा. और तब आयेगा चिर वांछित सबेरा.

लेकिन आज की त्रासदी यही है कि हम सामान्यतः समाज के दुश्मनों की पहचान उपर के नारे में ध्वनित मूल भावना से नहीं करते. हम अपने वर्ग शत्रु की पहचान उसके नस्ल, जाति, धर्म, लिंग आदि से ही करते हैं. दलगत राजनीति ने तो और भी सब कुछ घोल-मट्ठा कर दिया है. यानि, जो आपकी पार्टी का है, वह तो आपका दोस्त हुआ और जो दूसरी पार्टी में है, वह विरोधी या दुश्मन.

यदि गौर से देखें तो समाज मूलतः दो खेमों में बंटा है- खाया, पीया अघाया समाज और वंचित समाज. जिसके पास ‘है’ और जिसके पास ‘नहीं है’. पहले वाली श्रेणी सामान्यतः शोषण और विषमता पर आधारित इस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को बनाये रखना चाहते हैं, यथास्थितिवाद के पोषक हैं, जबकि वंचित जमात के लोग इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं, यथास्थितिवाद के विरोधी होते हैं या उन्हें होना चाहिए.

आज की विडंबना यह कि वंचित जमात जो आबादी के लिहाज से बहुत बड़ा है, नस्ल, जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर ज्यादा विखंडित है और इसलिए यथास्थितिवाद के पोषक सफल हैं शोषण और विषमता पर आधारित इस सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को बनाये रखने में.