तुष्टिकरण का प्रश्न कांग्रेस के गले मंे मरे सांप की तरह हमेशा लटका पाया जाता है. सबसे पहले यह माला कब और कैसे गले पड़ी, जानना जरूरी है. और ये किस्सा शुरू होता है, गांधी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने के साथ. यह आधुनिक भारतीय इतिहास का वाटरशेड मोमेंट है. पहला विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था, जो यूरोप के बड़े राजतंत्रों और कलोनियल पावर्स का आपसी दंगा था. ब्रिटेन ने लड़ाई जीत ली. और ब्रिटिश की ओर से खून बहाया उन भारतीय सिपाहियों ने, जिनके नाम आज इंडिया गेट पर खुदे हैं.
तुर्की हारे हुए ग्रुप में था. वर्साइल की ट्रीटी में जर्मनी को छिन्न भिन्न किया गया, जर्मन कैसर को गद्दी से हटाकर निर्वासन में भेज दिया गया. एस्ट्रो हंगेरियन एम्पायर भी खत्म हुआ, राजा निर्वासित, कई नए देश बने. इसी तरह सेव्र की ट्रीटी में तुर्की को टुकड़े करके कई नए नेशन स्टेट बना दिये गए. पांच शताब्दी तक चला विशाल ऑटोमन साम्राज्य, अब इस्तम्बूल के गिर्द बस एक छोटा सा देश भर रह गया. खलीफा निर्वासित हुआ, कमाल अतातुर्क वहां गद्दी पर आ गए. यहां एक लोचा था. ऑटोमन खलीफा सिर्फ बादशाह ही नही थे. वो धार्मिक लीडर भी थे, मोहम्मद साहब के वंशज माने जाते. दुनिया के तमाम मुस्लिम राजे-महाराजे, उन्ही से राज करने का दैवी मान्यता पत्र प्राप्त करते, क्यांेकि थ्योरीटिकली, खलीफा सारे मुस्लिम वल्र्ड के रूलर थे.
ऑटोमन्स के इलाके मे आज का पूरा अरब विश्व आता. मक्का मदीना समेत तमाम पवित्र जगहें थीं. अब ये सब इलाके लूटकर विजेता देश बंदरबांट कर रहे थे. मुस्लिमों की दुनिया मे खलीफा के प्रति सहानुभूति उठी. मांग थी, की कम से कम खलीफा को धार्मिक शहरों पर राज करने दिया जाए. याने ऑटोमन की पोलिटीकल सुप्रीमेसी खत्म होना तो ठीक, धार्मिक सुप्रीमेसी न छेड़ी जाए. जैसे पूरे इटली में, रोम शहर में इटालियन गवरमेंट है, मगर रोम के भीतर वेटिकन के एक वर्ग किलोमीटर में पोप की सोविर्निटी है, कुछ इस तरह के अरेंजमेंट की कल्पना होगी. इस मांग को लेकर जिन देशों में मुस्लिम उद्वेलित हुए, भारत भी उनमें एक था.
गांधी हालात देख रहे थे. कांग्रेस नाम की संस्था अजीब खिचड़ी थी. ऐसे तो वो अंग्रेजो की बनाई ग्रीवयेन्स रिड्रेसल फोरम थी. अंग्रेज आईएएस विलियम वेदरबर्न जैसे लोग हाल तक अध्यक्ष बन रहे थे. फिर इसमे एलीट वकील भरे थे.
हिन्दू हित वाले एनजीओ भी. उधर एक मुस्लिम लीग थी, वो मुसलमानों के हित के लिए लड़ती. कोई लड़ना चाहता था, कोई अनुनय विनय का हामीदार था. अंग्रेज इसका फायदा उठा रहे थे.
युद्ध के बाद भारत को होमरूल देने का वादा किया गया था. मगर फिर मांटैस्क्यू चेम्सफोर्ड सुधार के नाम का लॉलीपॉप थमा दिया गया.
गांधी अब तक, राइजिंग स्टार थे और चंपारण में नील आंदोलन, अहमदाबाद मिल आंदोलन और खेड़ा वगैरह लीड कर, देश के प्रोमिनेन्ट आन्दोलनजीवी बन चुके थे. अब असहयोग आंदोलन की तैयारी कर रहे थे, पर हिन्दुओ, मुसलमानों, सिंधियों, तमिलों…सबको साथ लाना था.
मुस्लिम लीग को साथ मिलाने लाने की कोशिश हुई. मिलकर अंग्रेजो से लड़ने के लिए एक पैक्ट 1916 में किया, जो लखनऊ पैक्ट कहलाता है. तो, अब मुद्दे शेयर होने लगे थे. इसी समय खलीफा का प्रश्न भी आया.
शानदार अवसर था, हिन्दू मुस्लिम दोनों धाराओं को साथ लाने का. भारत मे अंग्रेजो के सामने साझा चुनौती पेश करने का.
खलीफा से यूरोप में उसकी पावर्स छीनने वाले अंग्रेज ही थे. यहां भी दुश्मन अंग्रेज. देना अंग्रेजो को था, तुर्की में, यहां हमारा क्या जाना था?? हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा- चोखा..
अभी देश भर में अली ब्रदर्स खिलाफत के लिए सभा जलसे कर तो रहे थे, पर सरकार पर असर नही था. इस मुददे पर साथ देने के लिए गांधी के पास प्रस्ताव आया, तो गांधी ने खिलाफत कमेटी का चेयरमैन बनना स्वीकार किया. मुस्लिम समुदाय में कांग्रेस के प्रति विश्वास बढ़ा.
आंदोलन असफल रहा, क्योकि खुद अतातुर्क, खलीफा को वापसी का मौका क्यो देते. लेकिन यहां, गांधी की कांग्रेस, एकदम मास मूवमेंट में बदल गयी. महात्मा गांधी ‘राष्ट्रवाद’ का विशालकाय, प्यारा शुभंकर बन गए. उनके नेतृत्व में 1919 असहयोग आंदोलन में सबने मिल जुलकर भाग लिया. हिन्दू- मुसलमान अब एक लीडरशिप में आजादी की मांग, और राष्ट्रीय चेतना का सागर बन गए. समाज के सारे हिस्से बेझिझक, गांधी नीत इस यज्ञ में जुड़नें लगे. सड़कों पर विदेशी कपड़ों की होली जलने लगी.
तो, 1857 के बाद पहली बार हिन्दू मुसलमान मिलकर अंग्रेजो को चुनौती पेश कर रहे थे. अंग्रेज सरकार दशहत में आ चुकी थी. इस एकता ने न सिर्फ अंग्रेज सरकार को, बल्कि धर्म के आधार पर राजनीति करने वालो को भी दहशत में ला दिया था. अभी तक सब अपने अपने ठिये चला रहे थे. वह दुकानदारी खतरे में आ गयी. गणेश पंडाल का आंदोलन करने वाली, हिन्दू महासभा बनाने का प्रस्ताव पास करने वाली कांग्रेस, एकाएक ‘धर्मनिरपेक्ष’ हो गयी. जिन्ना, जो कभी गोखले के दाएं हाथ थे, गांधी की चमक में फीके पड़ गए. हेडगेवार, मुंजे, मालवीय को मुसलमानों के मुद्दे उठाने से कोफ्त हुई. सबने कांग्रेस से बाहर, अपने अपने ठिये बनाये. जल्द ही एक वीर, जेल से घबराकर, माफी लेकर बाहर आने वाला था. पेंशन लेकर वो अंग्रेजो को नही, गांधी को चुनौती पेश करने वाला था. गांधी हत्या के मुकदमे में, कटघरे में बैठने वाला था. इस देश मे धर्म की चेतना, राष्ट्रीय चेतना से उपर है. धर्म का खतरे में आना हमे उद्वेलित करता है, एक्शन को स्पर करता है. वो एक्शन, 1857 की क्रांति हो, 1919 का असहयोग आंदोलन हो, या 2024 में वोट हो. धर्म की चेतना को नेशनल इंट्रेस्ट में डाइवर्ट करने का पहला प्रयोग, मौलवी अहमदुल्लाह ने कारतूसों में गाय सूअर की चर्बी की अफवाह फैलाकर किया था. इस फर्जी अफवाह ने मंगल पांडे का असली लीजेंड दिया. इस असली लीजेंड ने भारत एक होकर, आजादी की पहली लड़ाई लड़ने को उद्वेलित किया.
गांधी ने भी खिलाफत आंदोलन में छुपी धार्मिक चेतना का यूज किया, और हिन्दूवादी समझी जा रही कांग्रेस में मुसलमानो को जोड़ दिया. एकता, म्युचुअल कन्सर्न, और धर्मनिरपेक्षता का स्वर्णिम हार, तब गांधी का मास्टरस्ट्रोक था, जो उस वक्त की मांग थी..
समय की धूल में चमक खोता गया. अब वह मरे सांप की तरह दिखने लगा. धर्मनिरपेक्षता आदत हो गयी थी, तो उसे दिखाने, याद दिलाने की जरूरत न थी. चुपके से किसी बदमाश ने, उसका नाम ‘तुष्टिकरण’ रख दिया.
वो सिकुलरिज्म हो गया है, वामी कांगी होने की पहचान बन गया है. मेंटली सिक देश मे, धर्मनिरपेक्षता गाली बन चुकी है.
अब तो गांधी भी धर्मनिपेक्षता के उस हार को, दमदारी से पुनः चमकाने की जगह, कोट के ऊपर जनेऊ पहन रहे हैं. मंदिरों की दौड़ लगा रहे हैं. अब तो ‘हिन्दू तुष्टिकरण’ जोरों पर है.
बस याद रहे, उस तुष्टिकरण ने जोड़ा था, यह तुष्टिकरण तोड़ेगा.
दोबारा तोड़ेगा.