वह 1784 की सुबह बेला थी. सूर्य की लालिमा ने अभी धरती को स्पर्श ही किया था. राजमहल के बीहड़ जंगलो में हिलरेंजर के सिपाहियों की एक टुकड़ी और उनके घोड़े की टापों की आवाज धीरे धीरे बढ़ने लगी थी. धूल का अम्बार उड़ता हुआ नजर आ रहा था. कुछ धंटे चलने के बाद हिलरेंजर की वह टुकड़ी भागलपुर बैरक की ओर बढ़ रही थी. लोग का हुजूम अब सड़को पर निकल कर आ गया था. रुदन, नाद और कोलाहल बढता जा रहा था.

चार घोड़े से बांध कर एक व्यक्ति को हिलरेंजर के सिपाही जानवरों की तरह घसीटते हुये ले जा रहे थे. समय जैसे थम सा गया था. पसीने और रक्त से सना उस व्यक्ति का श्याम देह.. . उस व्यक्ति के ललाट पर दर्द और पीड़ा साफ दिखाई पड़ता था. जंजीरों से बंधे उस व्यक्ति की विवशता और लाचारी, उसकी वेदना सहनशक्ति से बाहर थी, लेकिन उसकी आंखो मे पराजय का भाव रत्ती मात्र भी नहीं था. पसलियां और देह की हड्डियां उसके देह की खाल से बाहर दिख रही थी. रक्त से सना और ताड़ना की चरम सीमा तक सहने वाला वह व्यक्ति अंग्रेज सरकार की नजर मे एक ‘विद्रोही’ था. अंग्रेजों, साहूकारों और दुष्ट जागीरदारों के नजर में एक अपराधी ही था, क्योंकि इस व्यक्ति ने उनके खिलाफ बगावत करने की हिमाकत की थी. आज उस विद्रोही की आवाज को खत्म कर दिया जायेगा. उस पर आरोप था कि उसने एक अंग्रेज कलेक्टर अगस्टस क्लीवलेंड को अपने घातक तीर से मार गिराया था.

अंग्रेजों की यह टुकड़ी छावनी मे आकर रुकी. लोगांे का हुजूम उस व्यक्ति को देखने के लिये उमड़ पड़ा.

अचानक भीड़ से आवाज आने लगी - तिलका … तिलका.. .

भीड़ नियंत्रण से बाहर हो रही थी. अंग्रेेज की फौज निरीह जनता को नियंत्रित करने के लिये डंडे चलाने लगी. अफरा तफरी का माहौल था. कड़कती धूप मे ‘तिलका’ का निस्तेज देह पड़ा हुआ था. धूल, मिट्टी और लोहू से सनी उस काया ने जुल्म और अन्याय के खिलाफ प्रथम चिंगारी लगा दी थी. दुष्ट साहूकारों, जमींदारांे और क्रूर अंग्रेजी शासन के विरुद्ध जंग का आगाज हो गया था.

निस्तेज पड़े उस देह मे थोड़ी सुगबुगाहट हुई ही थी, तभी एक आवाज हुई-. ‘फायर’…गोलियों की आवाज गूंज उठी. गोलियों से आजादी के उस वीर दीवाने के देह छलनी हो गयी.

भय और आतंक के माहौल को और बढ़ाने के लिए उनकी मृत देह को बरगद के वृक्ष मे टांग दिया गया. चार दिनांे तक उनका शव उसी बट वृक्ष में टंगा रहा. ऐसा साहसी निडर आदिवासी अगुआ का नाम बाबा तिलक मांझी था. कूछ मान्यताआंे के अनुसार वे ‘जबरा पहाडिया’ के नाम से भी जाने जाते थे.

एक ‘तिलका’ की मौत ने आने वाले दिनों मे कई जनजाति विद्रोह को जन्म दिया. कोल विद्रोह, नागा विद्रोह, मुण्डा विद्रोह, संताल विद्रोह, भील विद्रोह आदि कई जनजातियों ने क्रूर अंग्रेजी शासन के खिलाफ जंग छेड दिया. असंख्य लोगांे ने अपनी जान गंवाई. आज से 237 वर्ष पूर्व भारत के वीर शहीद बाबा तिलका मांझी की शहादत को नये भारत के हुक्मरानों ने मान्यता भले न दी हो, आदिवासी जनता अपने इस महानायक को हमेशा याद रखती है और जल, जंगल, जमीन बचाओं आंदोलनों में उनसे प्रेरणा ग्रहण करती है.