10 अक्टूबर, पटनाय 1979

आठ अक्टूबर को जेपी का निधन हुआ। नौ अक्टूबर को अंत्येष्टि हो गयी। परंपरागत हिंदू रिवाजों के तहत। इस पर वाहिनी ने अपनी आपत्ति दर्ज की थी। दस अक्टूबर को होने वाली शोक सभा को, वाहिनी के अनुरोध पर श्रद्धांजलि सभा के रूप में मनाना तय हुआ। वाहिनी मित्रों के अलावा सर्वोदय और राजनीतिक दलों के अनेक लोग पटना पहुंच चुके थे। उनमें एक खास चंद्रशेखर (बाद में प्रधानमंत्री बने) जी थे, जो हमेशा जेपी के करीब रहे। उसी दिन दोपहर तक चंबल के तीन चर्चित पूर्व डाकू- माधो सिंह, मोहर सिंह और एक अन्य (नाम याद नहीं), जो खुद को बागी कहा जाना पसंद करते थे, भी पहुंचे। वे जेपी (उनके लिए ‘बाबूजी’ ) के अंतिम संस्कार में शामिल होना चाहते थे। मगर पेरोल पर जेल से रिलीज होने में विलंब होने के कारण समय पर पटना नहीं पहुंच सके। इस कारण मध्यप्रदेश सरकार और तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह से नाराज भी थे.

उनसे हम लोगों की मुलाकात महिला चर्खा समिति में हुई. तीनों छह फीट से भी लंबे, गठीला बदन, घनी मूंछें। उसी शाम गांधी मैदान में हुई श्रद्धांजलि सभा में वे मंच पर बैठे थे और भीड़ के आकर्षण के केंद्र। प्रसंगवश, चर्खा समिति में बातचीत के क्रम में मैंने माधो सिंह से कहा था, विशुद्ध मजाक में- हम लोगों को हमेशा पैसे की जरूरत रहती है। कल हम बाजार में चंदा मांगने निकलेंगे। आप लोग बस हमारे साथ रहियेगा, आसानी से चंदा मिल जायेगा। माधो सिंह भी मजाक समझ गये, हंसते हुए बोले- एकदम चलेंगे।

जेपी के प्रति उनकी श्रद्धा और दुर्दांत डाकू से आम आदमी बन चुके उन लोगों को देख कर अफसोस हुआ, आज और ज्यादा होता है कि इस बात को आज याद भी नहीं किया जाता, न आज के युवाओं को मालूम भी होगा कि जेपी के सामने 1972 में 400 से अधिक बागियों ने समर्पण किया था। यह अपने आप में अनोखी घटना थी। वैसे इसके पहले विनोबा भावे के सामने चंबल के करीब तीन सौ डाकुओं ने बंदूक का त्याग कर खुद को कानून के हवाले कर दिया था। बाद में आत्मसमर्पण के इच्छुक बागियों और इस काम में लगे लोगों को विनोबा जी ने ही जेपी का नाम सुझाया था।

इससे जुड़ा का एक उल्लेखनीय प्रसंग यह है (जिससे वाहिनी के साथी अवगत होंगे ही) कि श्71 में एक दिन माधो सिंह अचानक जेपी से मिलने पटना आ गये थे। अपना नाम राम सिंह बताया। जेपी आवास पर ही ठहरे। बागियों के समर्पण पर चर्चा की। कुछ दिन बाद जेपी से कहा- बाबूजी, मैं ही माधो सिंह हूं।

जेपी ने पूछा- तुम पर डेढ़ लाख का ईनाम है। तुमने यहां आकर मेरे पास रहने का जोखिम कैसे उठाया!

माधो सिंह ने कहा था- हमें आप पर पूरा विश्वास है।

समर्पण के साथ ही जेपी ने शर्त रखी थी कि इनमें से किसी को मृत्युदंड नहीं दिया जाये। उनका कहना था कि यदि फांसी ही होनी है, तो कोई आत्मसमर्पण क्यों करेगा! लेकिन कायदे से यह तो अदालत पर निर्भर करता था। इसलिए बाद में जेपी ने कहा था कि यदि इनमें से किसी को फांसी हो गयी, तो वे भी अनशन करके प्राण त्याग देंगे।

(यह विवरण किसी लेख में पढ़ा है। कहां, याद नहीं। अपने बीच के जानकार साथियों को इस पर लिखना चाहिए। लिखा हो, तो हमें भी पढ़ाना चाहिए।)

हमारे, खास कर मेरे लिए कल तक के ऐसे ‘खूंखार’ लोगों को इतने निकट से देखना, उनसे बात करना एक रोमांचक अनुभव था, पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले जिनके किस्से पढ़ता रहा था।