यह शीर्षक आपको आश्चर्य में डाल सकता है. इसलिए कि अभी तक भारत सरकार द्वारा जारी सोवरेन बॉण्ड अमूमन सिर्फ भारत सरकार के प्रतिष्ठानों, जैसे- बैंक, एलआईसी, जीआईसी और अन्य पीएसयू (पीएसयू) द्वारा ही खरीदे जाते थे.
ये हमारी अर्थव्यवस्था का घरेलुपना था.
सरकार के बॉण्ड के ये घरेलू खरीदार अपने अपने क्षेत्र, जैसे बैंकिंग, इंश्योरेंस, लोहा, कोयला के ट्रेड की एकाधिकारी या ऑथोरिटेटीव कम्मपनियां थीं, जो भारत की जनता से कमा कर सरकार के प्रति अपनी आर्थिक निष्ठा कर्तव्य को निभाने में आगे रहती थीं, अपने कमाई से सरकार का खर्च चलानें में अपनी भागीदारी इसी बॉण्ड के मार्फत पूरा करती थीं.
चूंकि बॉण्ड से नोट, करेंसी के वितरण का भी संचालन होता है, इसलिए सरकार के द्वारा अपनी हीं एजेंसीयों द्वारा देश के सोवरेन बॉण्ड से पैसा उगाहना एक ऐसी स्थिति थी जिसमें बाजार सरकार द्वारा रेगुलेट होता था.
अब इस बॉण्ड को अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचा जायेगा.
क्यों बेचा जायेगा?
इसलिए कि अब चूंकि बैंकों का निजीकरण हो रहा है, पीएसयू के विनिवेश भारी पैमाने पर हो रहे हैं, तो उनको बट्टे खाते की लायबिलिटी से तो अलग करना ही होगा. इस माफिक करना होगा कि उसके खरीदार खड़े हो सकें.
‘बैड बैंक’ के गठन से पीएसयू बैंकों का सब एनपीए एक जगह आ गया और अब बैंक निजी हाथों के लिए आकर्षक बन गये..!
हाँ… ये भी जताना होगा कि जो निजी कंपनियां पीएसयू या बैंकों को खरीदेंगी, देश के प्रति उनकी नैतिक जिम्मेवारी सरकार या समाज द्वारा तय नहीं होगी.
और वैसे भी बॉण्ड खरीदने की जिम्मेदारी निजी बैंक तो कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे. वे अपनी पूंजी का इस्तेमाल अपने हिसाब से करेंगे. एनपीए भी नहीं होने देना है और कमाई भी करनी है.
तो विदेशी हाथों में अब भारत सरकार के बॉण्ड कितने सोवरेन (संप्रभु) रह जायेंगे, यह सवाल उठाने के पहले आपको स्वीकार करना पड़ेगा कि भारत सरकार एक निजी कंपनी है, जिसके बॉण्ड रूपी शेयर विदेशी स्वामित्व के हाथों में जा रहे हैं.
हाँ, सिर्फ विदेशी रिटेल हाथों में जा रहे हैं, इसकी गारंटी भी नहीं. यह ठीक उसी तरह से ओपरेशनल होगा, जैसे टाटा, बिड़ला, अंबानी, अडानी की कंपनियों के शेयर बिकते हैं. उनके विदेशी खरीददार भी होते हैं और कंपनी के एमडी अपनी कंपनी के सिर्फ 10-20: शेयर के धारक होकर कंपनी का स्वामित्व अपनी गिरफ्त में रखने में कामयाब होते हैं. ऐसा इसलिए कि बाकी 94 फीसदी शेयर पॉइंट शून्य शून्य शून्य एक प्रतिशत (.0001फीसदी) की इकाई में लोगों के पास वितरित हैं जो कभी भी संगठित होकर एम डी का विकल्प नहीं हो सकते, उसे नहीं होने दिया जाता.
तो, 10-20 फीसदी के लायन शेयर से टाटा, बिरला, अंबानी-अडानी एमडी बने रहते हैं. यह पूंजी बाजार की पूंजीवादी व्यवस्था है, अब इस आर्थिक प्रजातंत्र की विषमता को हमने स्वीकार भी कर लिया है.
अब इसी तरह भारत के सोवरेन बॉण्ड विदेशी हाथों में तो होंगे, लेकिन उनका बड़ा हिस्सा भारत सरकार के हाथों होगा, ताकि बॉण्ड के मार्केट का रेगुलैटर अपने हाथ में रहे.
अब सोचने की बात यह है कि इस ‘ऐतिहासिक परिवर्तन’ या बुनियादी परिवर्तन का संभवित व्यापक असर अर्थव्यवस्था पर क्या होगा?
आइये, पहले यह समझते हैं कि सोवरेन बाॅड को अंतरराष्ट्रीय बाजार में उतारने के लिए सरकार को क्या क्या करना पड़ा? या कोविड और मंदी ही नहीं, आर्थिक असमानता की चैड़ी होती खाई वाली हमारी अर्थव्यवस्था को इसके लिए कौन सी कीमत चुकानी पड़ी?
इस ग्लोबल इंट्री के लिए हमारी अर्थव्यवस्था को भारी पैमाने पर अपना विदेशी मुद्रा भंडार अतिरिक्त रूप से बढ़ाना पड़ा, जिससे हम इस मंदी और धाराशायी जीडीपी के बावजूद भारी पैमाने पर डॉलर खरीदने को बाध्य हुए.
कमाये गये डॉलर और खरीदे गये डॉलर के फर्क को तो आप समझ ही रहे हैं.
डॉलर का ‘हिमालय’ ही सोवरेन बॉण्ड की खरीदारी का आकर्षण है, क्योंकि बॉण्ड के इंटरनेशनल खरीदार यह देखे बिना कि हमारी गठरी में कितने डॉलर हैं, बॉण्ड की तरफ मुखातिब ही नहीं होंगे.
विदेशी खरीदार के माध्यम से बॉण्ड खरीदने का मतलब कर्ज लेने से ज्यादा कुछ नहीं है.
भारत ने बॉण्ड दिया तो बॉण्ड के विदेशी खरीदार ने हमें डॉलर दिया.
तो कुल मिला कर भारत के बॉण्ड की ग्लोबल इंट्री हमारे लिए डॉलर के रूप में एक प्रकार का कर्ज है.
और कर्ज तभी मिलेगा, जब हमारी गठरी में माल हो. मतलब विदेशी मुद्रा भंडार की पहलवानी काया, हमारी भुगतान क्षमता को प्रतिबिंबित करे..
आखिर मुडीज जैसी संस्था से अनुशंसा जो चाहिए…!
कुछ भक्त टाइप जीव आपको समझा सकते हैं कि बॉण्ड की इस ग्लोबल एंट्री से सरकार की निर्भरता जो बैंकों पर थी, एलआईसी और सार्वजनिक क्षेत्र पर थी, अब इसके सामानांतर नये विकल्प आ गए…! यह बिल्कुल वही बात है कि किसी बच्चे की मां मर जाये तो उसे सौतेली मां मिल जाये!
बॉण्ड क्या है?
बॉण्ड बिल्कुल रुपया है, जिस पर लिखा है कि ‘मैं धारक को सौ रुपया देने का वचन देता हूं.’
दो भारतीय के बीच इस लेन देन में हमारा (यानी रिजर्व बैंक के गवर्नर का) वचन ही काफी है…
लेकिन जब धारक एक विदेशी है, तो इस विदेशी धारक का विश्वास तभी मिलेगा, जब हमारे टेट में डॉलर होगा.
खैर, इतना तो आप समझ ही गए होंगे कि डॉलर अब हमारी अर्थव्यवस्था की रुहेरवाह है, जो रुपया को चोट देता रहेगा, पेट्रोलियम उत्पादों की कीमत और मंहगाई हमेशा उछलती रहेगी, मंहगाई के सूत्र, एक छोर ही पकड़ से बाहर रहेंगे.
मंहगाई- बेरोजगारी क्यों है? विदेशी कर्ज क्यों बढ़ते जा रहे हैं?
आर्थिक असमानता क्यों इतनी विकराल होती जा रही है?
इन प्रश्नों के जबाब तभी मिलेंगे, जब आपको इनके सूत्र या छोर हाथ लगें..!
यही तो है आधुनिक अर्थशास्त्र या ईमानदारी से कहें तो मॉडर्न पॉलिटिकल इकॉनोमी का तिलस्म…!
जय हो इंडिया सोवेरन बाॅड प्राईवेट लिमिटेडकृ