मैं नहीं जानता कि बिहार, उत्तर प्रदेश सहित हिंदी पट्टी की खेती व्यवस्था अब बदली है या नहीं और बदली है तो कितनी बदली है. पिछले तीन दशकों से मेरा बिहार से नाता टूट चुका है. मैं आदिवासीबहुल झारखंड में रहता हूं और यहां की खेती व्यवस्था उत्तर भारत या कहिये पूरे देश से बिलकुल भिन्न है. यहां बड़े जोत वाले खेत कम है, कमोबेस दिहाड़ी मजदूरों के बगैर खेती होती है, आदिवासी मंडियों में धान बेचने नहीं जाते, क्योंकि उनके पास अपनी जरूरत से ज्यादा उपज होती ही नहीं.

लेकिन उत्तर भारत में, खास कर हिंदी पट्टी में अपेक्षाकृत बड़े जोत की खेती होती है. दिहाड़ी मजदूरों के बगैर खेती की कल्पना ही नहीं की जा सकती. एक जमाने में बड़े भूपति अपने ही गांव में दलितों को बसा कर रखते हैं और वे उनके खेतों में अपना पसीना बहाते हैं और बदले में गुजर बसर लायक पाते हैं.

आज तड़के नींद खुल गयी और कुछ नहीं सूझा तो बुक शेल्फ में पड़े अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ पर नजर पड़ गयी. इत्तफाक देखिये, किताब खोली तो रामविलास शर्मा की कविता ‘सिलचर’ सामने खुल गयी. महज 12-13 पंक्तियों की कविता, लेकिन उत्तर भारत के कृषि व्यवस्था पूरी विभीषिका के साथ इनसे झांकती है. और एकबारगी मेरी प्रतिक्रिया तो यही है कि यदि कृषि व्यवस्था और भूमि के आस पास बनने वाले सामाजिक संबंध इसी तरह के हैं आज भी तो उसे नष्ट हो जाने देना चाहिए.

कविता का भावार्थ: कटाई पूरी हो चुकी है. खेत से बालियों से भरे बड़े-बड़े धान के गट्ठर के गट्ठर खलिहान में सजा कर रख दिये गये हैं. खेत में ठूंठ ही ठूंठ रह गये हैं. पक्षियों के झुंड खेतों मंें दिखने लगे हैं. बैसाख की धूप खिली हुई है और धरती तप रही है. और अचानक काले धब्बों से दलितों की टोली खेतों में बिखर गयी है. उनके साथ बच्चे भी है और है फटा अंगोछा जिसमें वे खेतों से धान के रह गये बालियों, दानों को चुन रहे हैं. यही है उनकी मजदूरी. इन्हीं लोगों ने खेतों को जाता बोया भी था.

सिलचर

पूरी हुई कटाई, अब खलिहान में

पीपल के नीचे है राशि सुची हुई,

दानों भरी पकी बालों वाले बड़े

पूलों पर पूलों के लगे अरम्भ है.

बिगही-बरहे दीख पड़े अब खेत में,

छोटे-छोटे ठूंठ-ठंूठ ही रह गये.

अभी दुपहरी में पर, जब आकाश को

चांदी का- सा पात किये, है तप रहा,

छोटा-सा सूरज सिर पर बैसाख का,

काले धब्बों-से बिखरे वे खेत में

फटे अंगोछों में, बच्चे भी साथ ले,

ध्यान लगा सोला चमार है बीनते,

खेत की मजदूरी, इन्हीं ने

जोता बोया सींचा भी था खेत को.

राम विलाश शर्मा का कार्यक्षेत्र लखनउ रहा है और ‘तार सप्तक’ जिसमें मुक्तिबोध, नेमीचंद्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरजा कुमार माथुर, रामविलास शर्मा और अज्ञेय की कविताएं संग्रहित हैं, पहला ‘सप्तक’ था और आजादी के कुछ वर्षों पहले प्रकाशित हुआ था. करीबन 70 वर्ष पहले. जाहिर है, हालात कुछ बदले होंगे. कितना बदला, यह तो बिहार, उत्तर प्रदेश में रहने वाले और कृषि व्यवस्था को करीब से देखने वाले ही बता सकते हैं. हालांकि मेरी जानकारी में बहुत ज्यादा नहीं बदली है. जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के बावजूद भी बड़े जोत वाले किसान है जिनके कब्जे में जमीन का बड़ा हिस्सा है. खेती दिहाड़ी मजदूरों के बलबूते ही चलती है. और मजदूरी नक्सलवाड़ी मूवमेंट के बावजूद बहुत ज्याद नहीं बढ़ी. खेतीहर मजदूर अभी भी अधिकतम दो ढ़ाई सौ रुपये मजूरी पाता है.*