कोविड से हुई तबाही- ऐसी दर्दनाक तबाही, जिसे हमारी पीढ़ी ही नहीं, बुजुर्गों ने भी अनुभव नहीं किया था, के मद्देनजर उचित नहीं होता कि इस बार पूरे देश में दीवाली के जश्न से परहेज किया जाता? हाल में वैसी त्रासदी का गवाह बनने के बाद, ऐसी जगमग, ऐसी आतिशबाजी! यह सही है कि जीवन मृत्यु से बड़ा सच है। जीवन तो चलता ही रहता है। फिर भी मुझे थोड़ा अटपटा लगा, लग रहा है।

बेशक इसके लिए बाजार के दबाव और उकसावे को एक कारण माना जा सकता है। मगर ऐसा नहीं लगता कि हमारा समाज तेजी से संवेदनहीन होता जा रहा है। ऐसे अनेक मौके आते हैं, हमारे निजी और पारिवारिक जीवन में, जब हम कुछ दिनों के लिए उल्लास और खुशी मनाने से विरत हो जाते हैं। गांव (खास कर गोतिया) में किसी की मौत हो जाने पर पूरा कुनबा कुछ दिनों तक प्रतीकात्मक तौर पर ही सही, शोक मनाता है।

यदि हम ऐसा कर पाते, तो इससे देश-समाज के संवेदनशील होने का संदेश जाता।

आश्चर्य कि पक्ष-विपक्ष के किसी नेता, संगठन या मीडिया या संवेदनशील बुद्धिजीवियों ने ऐसी कोई बात तक नहीं की!

मेरी तो कोई हैसियत नहीं है, फिर भी हिचकता रहा। यह सोच कर कि कहीं इसे मेरी निजी पीड़ा (जिनको पता न हो, उनके लिए- विगत दो मई को मेरी जीवन साथी कनक को कोविड ने लील लिया।) से उपजा नकारात्मक विचार न मान लिया जाये।

प्रसंगवश, हरमू (रांची) के आशा एपार्टमेंट में इस बार कोई सजावट नहीं हुई। इसलिए कि वहां बीते मई माह में एक महिला की मौत कोविड से हो गयी थी। दीवाली न मनाने का फैसला सामूहिक था। यह उस एपार्टमेंट के लोगों की एकजुटता, कथित निगेटिव शहरी कल्चर के बावजूद परस्पर लगाव, संवेदनशीलता का प्रमाण और आशा जगाने वाला उदाहरण है। यह बात इसलिए जानता हूं कि उसमें मेरे एक भतीजे का परिवार रहता है।

जहां तक देश का सवाल है, प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार (कोविड संकट में जिनकी अक्षम्य लापरवाही और कुव्यवस्था के हम प्रत्यक्ष गवाह हैं) के लिए तो यह स्थिति कि देश सब कुछ भूल कर जश्न में डूबा हुआ है, अच्छी ही थी। मीडिया ने बताया- बाजार में गहमागहमी है। धनतेरस में जम कर खरीदारी हुई। सारे सरकारी, गैर सरकारी भवनों और मंदिरों को रोशनी से जगमगा दिया गया… यानी सब कुछ सामान्य है। राज्य सरकारें भी कमोबेश इस संवेदनहीन लापरवाही में शामिल रही हैं। सबों ने कोविड से हुई मौत की संख्या कम दिखाने का प्रयास किया। संसद में एक मंत्री ने कह दिया कि आक्सीजन की कमी से देश में एक भी मौत नहीं हुई। इस दावे को चुनौती दिये जाने पर सफाई दी कि राज्य सरकारों से ऐसी कोई जानकारी नहीं मिली है। गंगा के किनारे रेत में दफन कर दी गयी और पानी में तैरती लाशों की तसवीरों को विपक्ष और पत्रकारों द्वारा जारी फर्जी तसवीर बता दिया गया। इसके पहले बीते साल बिना तैयारी के पूरे देश में घोषित लाकडाऊन से जो अफरा-तफरी मची, लाखों-करोड़ों लोग सुरक्षित जगहों तक जाने के लिए सड़कों पर भटकते रहे, लोगों की वह बेबसी और सरकारों की संवेदनहीनता तो अब आजाद भारत के इतिहास पर बदनुमा दाग की तरह दर्ज हो चुकी है। समाज के एक हिस्से, सामाजिक संगठनों ने अवश्य उस दौरान मानवता का परिचय दिया। भटकते लोगों की सहायता की।

सरकार ने खुद इसे महामारी कहा। लेकिन उससे निबटने में कारगर क्षमता का घोर अभाव दिखा। फिर अचानक यह दावा कर दिया कि हम कोविड के खिलाफ जंग जीत चुके हैं। हालांकि उसके बाद भी तबाही का दौर जारी रहा।

यह बात एक हद तक सही है कि लंबी बंदी के कारण लोग ऊबे हुए थे-हैं। इसलिए मौका मिलते ही सभी मौज मस्ती के मूड में आ गये। और बाजार तो हर संभव तरीके से हमें ललचाता और उकसाता ही है। मगर हम इतनी जल्दी उस त्रासदी को भूल गये, यह देखना भी कम त्रासद नहीं था। वैसे, सच शायद यही है कि हममें पहले भी संवेदनशीलता का अभाव था। वह अभाव अब बढ़ता जा रहा है।

इस दीवाली को तो छोड़िये, हर वर्ष दीवाली के मौके पर भयानक आवाज वाले पटाखे फोड़ते हुए शायद ही कोई सोचता है कि उसके बगल के घर में अत्यंत वृद्ध और बीमार लोग भी हो सकते हैं। छोटे बच्चे हो सकते हैं, जिनको इस शोर से परेशानी हो सकती है। प्रशासन हमेशा घोषणा करता है कि रात इतने बजे तक ही पटाखे फोड़ सकते हैं। मगर कौन परवाह करता है! हम-आप टोकने का साहस भी नहीं कर पाते। क्या पता, इससे किसी की आस्था ही आहत हो जाये या उल्टा-सीधा सुनना पड़ जाये! संयोग से मेरे गांव में, कुछ दिन पहले हुई एक मौत के कारण इस बार ‘छुत्तक’ हो गया। दीवाली नहीं हुई। वास्तविक ‘शोक’ के कारण तो नहीं कह सकते, मगर परंपरा का निर्वाह किया गया। ऐसी परंपरा मुझे गलत भी नहीं लगती। एक कौटुंबिक जुड़ाव का एहसास तो होता ही है।

उम्मीद थी कि इस बार देश में भी ऐसा कुछ होगा। यह तो तय है कि लाखों परिवारों के लिए इस बार की दीवाली अंधेरे और मातम में ही बीती होगी। मगर शेष समाज उनके साथ नहीं था। तो क्या ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को आदर्श मानने वाले भारत के लोग अपने देशवासियों को भी अपने कुटुम्ब का हिस्सा नहीं मानते!