जेपी पर हेमंत द्वारा लिखे अप्रकाशित पुस्तक से लिया गया एक अंश. यहां बउल जी जेपी के बचपन का नाम है.

एक दिन शंभू बाबू की ऊंची आवाज कान में पड़ी। शंभू बाबू न जाने किस से जोर-जोर से बातें कर रहे थे। बउलजी से रहा नहीं गया। पूछा- “क्या है?”

शंभू बाबू ने कहा- “ओहो बउलजी, आप ही की बात कर रहा था।”

“इतनी जोर-जोर से?”

“…अरे, थोड़ा भावुक हो गया था…।“

बउलजी के होठों पर मुस्कान देख शंभू बाबू ने बड़े रहस्यमय ढंग से कहा- बउलजी जरा चलिए, राजेंद्र बाबू के डेरे पर। ब्रजकिशोर बाबू के दर्शन कर आवें…।” राजेंद्र बाबू के डेरे पर! बउलजी सहर्ष साथ चल पड़ा। राजेंद्र बाबू कोलकाता से पटना आ कर यहीं के हाईकोर्ट में वकालत कर रहे थे। वहां बउलजी को देखते ही ब्रजकिशोर बाबू गद्गद् हो उठे। उन्हें लगा, उनकी प्रभा बेटी की शादी के लिए यही वर है। तब 18 वर्ष के बऊलजी को शम्भू बाबू के फोन पर जोर-जोर से बतियाते भावुक होने का रहस्य समझ में आया। और राजेन्द्र बाबू के डेरे से बाहर निकलते ही वह खुद अन्दर-ही-अन्दर अबूझ रोमांच से घिर गया!

शादी के पहले ही उसे मालूम हो गया कि प्रभावती पिता की बहुत दुलारी मुंहलगी बेटी है। ब्रजकिशोर बाबू ने बेटे की तरह उनका लालन-पालन किया है। गांधी से भेंट के के पहले तक वह लड़कों की पोशाक धोती-कुर्ता-पैजामा पहनती थी! पिता ने स्कूल नहीं भेजा। उन्हें घर पर ही बाकायदा शिक्षा मिली…। पिता ब्रजकिशोर प्रसाद बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी और बिहार-उड़ीसा लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य हैं। वे 1917 से ही गांधीजी से जुड़ गये हैं, जब गांधी चम्पारण सत्याग्रह के सिलसिले में पहली बार चंपारण आये थे। गांधीजी जब बिहार आते, ब्रजकिशोर प्रसाद उनके साथ होते। दोनों में पारिवारिक प्रेम विकसित हो चुका है। प्रभा गांधी-कस्तूरबा की ‘बेटी-सी’ हो गयी हैं। वह गांधीजी के स्नेह में पग चुकी हैं…। 1919 के जून महीने में शादी हुई। और बउलजी के जीवन को सहज ही एक धारा मिल गई। राजनीतिक जीवन का एक सहायक क्षेत्र मिल गया। बिहार की राजनीति से उसका रक्त-संबंध जुड़ गया…।

किशोरावस्था की मुग्धावस्था में पगी प्रभावती कब यौवन की उस स्थिति में पहुंच र्गइं, जिसे रमणी की संज्ञा दी जाती है, पता ही नहीं चला. 18 वर्ष का युवक बऊलजी, 14 वर्ष की तरुणी प्रभा। एक-दूसरे के प्रति आकर्षण अनुभव करते-करते न जाने कैसे दो साल गुजर गये, पता ही नहीं चला। सारी सृष्टि एकबारगी रंगीन दिखाई पड़ने लगी थी। विश्व में चतुर्दिक प्रेम का माया-जाल-सा फैला दिखने लगा था। प्रभा का साथ पाकर बाउल तो जैसे ‘बाऊल’ बनने के लिए बेताब हो उठा!

असहयोग की आंधी

तभी ‘असहयोग’ की गांधी की आंधी चली। यह आंधी एक चढ़ते हुए तूफान की तरह देश में छा गयी। हजारों नौजवानों की तरह बउलजी भी सूखी पत्तियों की तरह उस तूफान में उड़कर कुछ देर के लिए आकाश में पहुंच गया। एक ऊंचे विचार की उड़ान में बहुत ऊंचे उड़ जाने का वह अल्प अनुभव अंतस्तल में कुछ ऐसी छाप छोड़ गया, जिसे काल और वस्तुस्थिति की भयंकरता भी मिटा नहीं सकती। उस छोटे-से अनुभव का परिणाम यह है कि अब ‘आजादी’ उसके जीवन का -आकाशदीप-बन चुकी है। यूं असहयोग को ‘आंधी’ मानकर वह कुछ देर रुका रहा। उसकी एक मित्र मंडली ऐसी थी, जिसमें सब छात्रवृत्ति पाते थे। उसमें चर्चा हुई। सबने तरह-तरह से सोचा कि पढ़ाई छोड़कर असहयोग आंदोलन में शामिल हों या कि स्कूल भी छोड़ दें। उस समय गांधीजी पटना आये हुए थे, उनकी बहुत बड़ी सभा हुई। मुख्य वक्ता थे मौलाना आजाद। सभा भी उन्हीं की थी। गांधीजी के साथ जवाहरलाल भी आये। उनके बारे में मित्रमंडली को ज्यादा जानकारी नहीं थी। नेहरू युवक थे, इसलिए कुछ आकर्षण था। वह और उसकी विद्यार्थी मित्रमंडली गांधीजी से नहीं मिली। लेकिन मौलाना आजाद का भाषण सुनकर दूसरे ही दिन से सब ने ‘असहयोग’ शुरू कर दिया!

बिहार विद्यापीठ के लिए झरिया से एक बड़ी रकम गांधीजी ने वसूल की थी और उसे एक आदर्श शिक्षालय बनाने के प्रयत्न हो रहे थे। बउलजी ने इंटरमिडियट साइंस की परीक्षा बिहार-विद्यपीठ से ही दी और सम्मान के साथ उत्तीर्ण हुआ। उसने बिहार-विद्यापीठ से आईएस.सी की परीक्षा दी और सम्मान के साथ उत्तीर्ण हुआ। हालांकि परीक्षा देने की भी इच्छा नहीं थी। बी.एस.सी. की पढ़ाई का कोई प्रबंध विद्यापीठ में नहीं था, अतः वह बनारस गया और वहां प्रोफेसर फूलदेव सहाय वर्मा (हिंदू विश्वविद्यालय के रसायन-विभाग के प्रधान) के साथ रहकर उनकी देख-रेख में विज्ञान का अध्ययन करता रहता। वहां रहते हुए प्रोफेसर वर्मा की लेबोरेटरी का भी वह उपयोग करता।

लेकिन अपनी प्रबल ज्ञान-पिपासा का क्या करे?

बहरहाल, हुआ यूं कि ‘असहयोग-आंदोलन’ शांत होने के बाद प्रश्न उठा कि अब क्या करना है। बहुत से विद्यार्थी वापस गये। स्कूल छोड़कर असहयोग आंदोलन में आते समय बउलजी ने प्राचार्य को ब्रिटिश राज की शिक्षा के बारे में लिखा था। आंदोलन शांत होते ही वह व्यर्थ या गलत हो गया, ऐसा वह नहीं मानता था। इसलिए वापस जाने का मन नहीं था। लेकिन आगे पढ़ने की इच्छा थी। बिहार विद्यापीठ में विज्ञान की शिक्षा का (बी.एस.सी. की पढ़ाई का) कोई प्रबंध नहीं था। वह विज्ञान पढ़ना चाहता था। तब गुरुजनों का आग्रह हुआ कि हिंदू विश्वविद्यालय में नाम लिखाकर वह विज्ञान का अध्ययन करे। किंतु, वह इसके लिए राजी नहीं हुआ। हिंदू विश्वविद्यालय को अंग्रेज सरकार की मदद मिलती है। जिस सरकार को एक वर्ष पहले शैतानी सरकार कहा जाता था, क्या अब वह शैतानी सरकार नहीं रह गई कि उसकी मदद लेकर चलने वाली किसी यूनिवर्सिटी में अध्ययन किया जाए? तभी उसने स्वामी सत्यदेव के भाषण पढ़े, ग्रंथ पढ़े। असहयोग के पहले बिहार प्रांत में स्वामी सत्यदेव के व्याख्यानों की धूम थी और उनकी अमेरिका-संबंधी पुस्तकें विद्यार्थियों में बड़े चाव से पढ़ी जाती थीं। वे कैसे अमेरिका गये, वहां पर कैलिफोर्निया और वाशिंगटन में किस तरह उन्होंने खेतों में और फलों के बागान में मजदूरी कर अध्ययन किया, यह सब जयप्रकाश ने पढ़ा। उससे प्रेरणा मिली और उसने सोचा कि वह भी अमेरिका जाये। अमेरिका में विद्यार्थी स्वावलंबन के आधार पर शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, यह बात उसे सबसे अधिक पसंद आयी।

किंतु, घर-परिवार के विघ्न!। घर में बाबू हरसूदयालजी अपने प्यारे बेटे को इतनी दूर भेजने की चर्चा से ही सिहर उठे। मां फूलरानी ने आंसुओं से घर-आंगन को भर दिया। ससुर ब्रजकिशोर बाबू विद्यार्थियों को विदेश भेजे जाने में प्रोत्साहन देते आये हैं, बहुत-से लोगों की मदद भी की है। किंतु, वह भी शादी के महज डेढ़-दो साल बाद जयप्रकाश के अमेरिका जाने के पक्ष में नहीं थे। उस समय भोलादत्त पंत नामक एक गढ़वाली विद्यार्थी, जो हिंदू यूनिवर्सिटी में पढ़ता था, अमेरिका जाने के लिए मदद की उम्मीद में ब्रजकिशोर बाबू के पास आया था। बउलजी से उसकी भेंट हुई और पहली मुलाकात में ही दोनों दोस्त बन गये। बउलजी ने भोलादत्त पंत के साथ ही अमेरिका जाना तय कर लिया। और, कलकत्ता जाकर पासपोर्ट आदि का प्रबंध भी कर लिया। उसी पहली कलकत्ता-यात्रा में उसने पहले-पहल ट्राम देखा…!

किंतु उसी समय अखबारों में निकला कि अमेरिका में जो भारतीय विद्यार्थी हैं, उन्हें बहुत कष्ट उठाने पड़ रहे हैं, मंदी की वजह से वहां कोई काम भी नहीं मिलता, आदि-आदि। अखबार का यह अवतरण दिखलाकर बउलजी को रोक ही दिया गया। किंतु भोलादत्त पंत अमेरिका गया। अमेरिका पहुंचकर उसने उसे लिखा कि अखबार की वह बात अतिशयोक्ति-मात्र है, तुम आप ही क्या, अपनी पत्नी के साथ भी आ सकते हो!

यह पत्र जयप्रकाश ने प्रभा को दिखलाया और फिर पति-पत्नी में गुपचुप षड्यंत्र हुआ। कुछ समझौता हुआ। जयप्रकाश अब सीधे कलकत्ता पहुंचा और सारा प्रबंध करके लौटा, तब घरवालों को सूचना दी कि अमुक तिथि को मैं जा रहा हूं। सब चकित हुए। तब प्रभा मायके में थीं। ब्रजकिशोर बाबू ने जब पूछा- “तुम्हें यह सब मालूम था?” प्रभा ‘ना’ नहीं कह सकीं।

लेकिन घरवालों की आर्थिक स्थिति ऐसी कहां कि वे पढ़ाई का खर्च दे सकें। उन्होंने यात्रा का तथा कुछ माह का खर्च दिया। तब अपनी योजना के अनुसार बऊलजी अमेरिका रवाना हुआ और प्रभा ने तय किया कि वह ससुराल या मायके के बजाय साबरमती आश्रम जायेंगी - गांधी की बेटी बनकर आश्रम में रहने। तब तक दोनों में से किसी को कहां मालूम था कि एक पक्का मार्क्सवादी बनेगा और दूसरी कट्टर गांधीवादी!