देश में प्रति एक हजार पुरुष 1020 स्त्री। यह सचमुच बड़ी और सकारात्मक खबर है या थी। थी इसलिए कि यह आंकड़ा संदिग्ध है। फिर भी, यह ऐसी खबर थी कि लोगों का, खास कर जो आबादी में औरतों का अनुपात कम होने से चिंतित रहते हैं, खुश होना स्वाभाविक था। इस खुशी में किसी ने इस पर ध्यान ही नहीं दिया कि इस आंकड़े का आधार क्या है।
एक सरकारी सर्वे में कहा गया- देश में लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक हो गई. सारी मीडिया ने छाप दिया. गोदी मीडिया हो या एंटी गोदी. किसी ने इन आकड़ों की पड़ताल के बारे में कुछ नहीं सोचा.
हिंदी मीडिया से तो ऐसी उम्मीद कम ही रहती है, अंग्रेजी में भी सराकरी प्रेस रिलीज चलाने का चलन स्थापित हो चुका है. सो वहां भी इस खबर को ‘तथ्य’ की तरह परोस दिया गया। बीबीसी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान ने भी कहीं से जांच करना उचित नहीं समझा.
हम जानते हैं कि हर दस साल पर जनसंख्या की गणना होती है। वैसे जनगणना का काम निरंतर चलता है। दस साल पर होने वाली जनगणना की तैयारी दो तीन साल पहले शुरू हो जाती है। इसके लिए कर्मचारी, जिनमें अधिकतर शिक्षक (शिक्षिका) होते हैं, घर-घर जाकर फार्म भरते हैं। आम जन को पता चलता है कि कोई सर्वे हो रहा है. अनेक तरह की जानकारी ली जाती है। पिछली जनगणना 2011 में हुई थी। कायदे से इस वर्ष फिर होनी थी। मगर शायद कोरोना संकट के कारण वह काम रुख या अटक गया है। जनगणना के आंकड़ों से ही स्त्री-पुरुष आबादी के अनुपात की जानकारी सार्वजनिक होती है। किसी को याद है कि हाल में आपके घर और मुहल्ले में कब कोई ऐसा सर्वे करने आया था?
इस नयी जानकारी को फैमिली सर्वे पर आधारित बताया जा रहा है। लेकिन ऐसा सर्वे सीमित दायरे में ही होता है। इसे सैंपल सर्वे कहते हैं। इस आधार पर सिर्फ ‘अनुमान’ लगाया जा सकता है। जैसे चुनाव के दौरान ओपीनियन पोल और मतगणना के बाद एक्जिट पोल से किसी राज्य या देश भर के नतीजे बता दिये जाते हैं। हालांकि वे भी कहते हैं कि यह महज अनुमान है, जो गलत भी हो सकता है।
यह फैमिली सर्वे कितने लोगों का हुआ, पता नहीं। सैंपल डाटा साइज नहीं लिखा है. इसी तरह के सर्वे के मुताबिक 2015 में महिलाएं कम थीं। छह साल में ही ऐसी छलांग कैसे लगी, इसके कारणों पर किसी ने कुछ लिखा नहीं. कुछ कहा नहीं.
ऐसे में यह संदेह अकारण नहीं है कि कहीं यह भी मोदी सरकार की एक और उपलब्धि बताने का प्रयास तो नहीं है?