राष्ट्रीय स्वास्थ सर्वे के अनुसार भारत में हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या 1020 हो गयी है, यानि अब लड़कियों को जन्म देकर लोग उसे जीवित रखना चाह रहे हैं. इस रिपोर्ट को भी संदेहास्पद माना जा रहा है, क्योंकि यह हमेशा जनगणना के आंकड़ों से अलग रहा है.

इस रिपोर्ट में लड़कियों की संख्या बढ़ने तथा उनके शैक्षणिक स्तर व स्वास्थ में सुधार का भी दावा किया जा रहा है. 2006 से 2016 के बीच 11 से 14 तक की लड़कियों का स्कूल से निकलने का प्रतिशत 10.3 प्रतिशत से घट कर 4.2 प्रतिशत हो गया. 15 से 16 वर्ष की लड़कियों का स्कूल में प्रवेश न करने का प्रतिशत अब 13.5 प्रतिशत हो गया जो पहले 20 प्रतिशत था. 15 से 19 वर्ष की लड़कियां गर्भवती हो कर या तब तक बच्चा हो जाने से स्कूल नहीं जा पा रही थीं, ऐसी लड़कियों का प्रतिश भी 16 से घट कर 8 प्रतिशत हो गया. इसका अर्थ यह हुआ कि लड़कियां अब अपने अस्तित्व को बचा पा रही हैं. साथ ही 80 फीसदी महिलाओं का बैंक में खाते खुल गये जो पहले 54 प्रतिशत थे. 45 प्रतिशत मोबाईल रखने वाली महिलाएं बढ़ कर 54 प्रतिशत हो गयी हैं, 77 प्रतिशत महिलाएं अब सेनीटरी पैड्स का उपयोग कर पा रही हैं, जो पहले 57 प्रतिशत थी.

देखा जाये तो ये सारी बातें महिलाओं के आर्थिक सुधार को कुछ ज्यादा नहीं दिखा पाती हैं, क्योकि पिछले 12 महीनों में केवल 24.6 प्रतिशत से 25.4 प्रतिशत नौकरियां बढ़ पायी हैं. यह बेहद सुस्त विकास है. यदि 80 फीसदी महिलाएं बैंक खाता खोल ली हैं तो गौर करने वाली बात यह है कि सरकार की जनधन योजना के तहत महिलाओं के खाते खोले गये हैं जो इसमें शामिल हैं. सस्ते मोबाईल का उपयोग सामान्य आर्थिक स्थिति वाली महिलाएं भी करने लगी हैं. अब रही सेनीटरी पैड की बात तो ये बाजार में सस्ते दामों में उपलब्ध हैं.

महिलाओं के स्वास्थ के संबंध में भी इस रिपोर्ट में कई बातें आयी हैं जो चिंताजनक है. राष्ट्रीय स्तर पर 2015-16 से 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के 67 प्रतिशत में रक्त की कमी और 60 वर्ष से कम उम्र की महिलाओं के 60 प्रतिशत में रक्त हीनता पायी गयी है. इसका मतलब यह हुआ कि इन बच्चों और महिलाओं को कुपोषण का शिकार होना पड़ता है. सरकार द्वारा शक्तिदायी भोजन की योजनाएं या तो अपर्याप्त हैं या उन तक पहुंच नहीं रही हैं. चिकित्सा व्यवस्था की भी कमियों की वजह से महिलाओं के स्वास्थ की देख भाल ठीक से नहीं हो पाती है. स्वास्थ वीमा मात्र 47 प्रतिशत घरों तक ही पहुंच पाया है. 88 प्रतिशत संस्थागत प्रजनन की बात से यह साबित नहीं होता है कि सरकारी अस्पतालों की सुविधा गांव-गांव तक पहुंच गयी है. इसकी जगह गांवों तथा शहरों में निजी अस्पतालों की संख्या बढ़ गयी है जहां लोग कर्ज लेकर भी पहुंच रहे हैं. बदलते जीवन यापन, खान- पान आदि के चलते भी रोगों में वृद्धि हुई है. कोरोना ने तो रही सही अर्थ व्यवस्था को ही ढ़ाह दिया है. गरीबी में बिहार के बाद झारखंड का नाम आता है और फिर उत्तर प्रदेश का, जहां औरतों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है.

इस स्थिति में भी महिलाओं की संख्या बढ़ जाने को सरकार चुनाव में भुनाना चाहती है तो दूसरी बात है, लेकिन पहले तो उसे चाहिए की वह महिलाओं के स्वास्थ, पोषण तथा सामाजिक स्थिति में सुधार की योजनाएं लाये और इस बढ़ी हुई संख्या को कायम रखे. यदि महिलाओं की संख्या में जरा भी वृद्धि हुई है तो इसका श्रेय महिलाओं की जिजीविषा को ही दिया जायेगा, सरकार को नहीं.