करीबन एक वर्षों से चला किसान आंदोलन एक मुकाम तक पहुंच गया है. सरकार ने अपने थोपे गये तीन काले कृषि कानूनों को वापस ले लिया है. किसान संगठनों ने अब तक आंदोलन वापस नहीं लिया है. न्यूनतम खीरद मूल्य की गारंटी, आंदोलन के दौरान शहीद हुए किसानों के मुआवजे, आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों पर लादे गये मुकदमों आदि जैसे कुछ मांगों की वापसी का सवाल अभी बना हुआ है. किसान संगठनों ने अपने पांच प्रतिनिधियों का चयन कर सरकार से वार्ता की तैयारी शुरु कर दी है. हम उम्मीद करें कि उन मांगों पर भी बीच का रास्ता कुछ निकलेगा और किसान सड़कों से उठ कर अपने घर वापस जायेंगे. अनुत्तरित सवाल यह रह गया है कि हठधर्मी भाजपा सरकार आखिरकार आंदोलनकारियों के सामने झुकी कैसे? क्या वास्तव में सरकार शांतिमय आंदोलन की ताकत के सामने नतमस्तक हुई? लोकतंत्र में उसकी आस्था है?

यदि सरकार के वर्तमान रुख को देखें तो हमे निराशा हाथ लगती है. स्थितियों का मूल्यांकन करें तो हम इसी नतीजे पर पहुंचते हैं कि आगामी चुनावों में हार के भय से ही सरकार आंदोलनकारियों के सामने झुकने को तैयार हुई. लोतंांत्रिक मूल्यों में उसकी आस्था कहीं से भी नजर नहीं आती. एक वर्ष से चले इस ऐतिहासिक आंदोलन को अब भी सरकार किसानों के एक छोटे समूह का आंदोलन मानती है. मोदी और उनके मंत्री बार बार यह कहते रहे हैं कि कृषि कानूनों से एक छोटे से हिस्से को असंतोष है. शहीदों की संख्या को लेकर भी उसका क्रूर जवाब है कि उनके पास मृतकों के कोई आकड़े नहीं, इसलिए मुआवजा वे कैसे और किसे दें. न्यूनतम समर्थन मूल्य की यदि वे गारंटी करते हैं तो भारत की अर्थ व्यवस्था पर भारी दबाव पड़ेगा आदि. ये सारी बातें भ्रामक हैं और इस बात के द्योतक की सरकार को लोकतांत्रिक तरीके से चलने वाले जन आंदोलनों के प्रति जरा भी आस्था नहीं. कृषि कानूनों की वापसी की कार्रवाई के पहले संसद में वह इस पर बहस से बाज आयी. संसद की कार्रवाईयों की रिपोर्ट जनता के बीच न जाये, इसलिए पत्रकारों को संसद की रिपोर्टिंग करने के रासते अवरोध उत्पन्न किया जा रहा है.

जो बात समझ में आती है कि वह इस बात से आक्रांत हैं कि इस आंदोलन के लंबे खिंचने से आगामी चुनावों पर असर पड़ सकता है.बंगाल में हुए चुनाव में वे बुरी तरह पराजित हुए. उपचुनावों के परिणाम भी उनके लिए सकारात्मक संकेत देने वाले नहीं. इसलिए तत्काल उन्होंने आंदोलन को खत्म करने की नीयत से तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी. वैसे भी इस बार उत्तर प्रदेश और पंजाब में चुनाव होने हैं और पश्चिमोत्तर उत्तर प्रदेश का जाटबहुल इलाका हो या पंजाब, वहां के किसान इस आंदोलन में हैं.

लेकिन उनकी नीयत साफ नहीं. उनकी समझ यह है कि किसान आंदोलन पर उनके रुख की वजह से किसान आंदोलन में शामिल वोटरों का वह समूह जो पिछले चुनाव तक भाजपा के साथ रहा है, अब इन मांगों की वापसी से वापस उनके पाले में आ जायेंगे. किसान आंदोंलन में खेमेबाजी होगी. उनकी सांप्रदायिक राजनीति, जो किसान आंदोलन की वजह से थोड़ी धूमिल पड़ गयी थी, वह फिर गति पकड़ लेगी. मंदिरों का जीर्णोधार किया जा रहा है. राष्ट्रीय स्वास्थ सर्वे के माध्यम से सरकार की छवि बनाने की कोशिश हो रही है. भारत के सेक्स रेसियों में गुणात्मक परिवर्तन, 80 फीसदी महिलाओं के बैंक खाते आदि खबरें इसी बात के संकेत करते हैं. हालांकि बड़ा सच यह है कि यदि 80 फीसदी महिलाएं बैंक खातों का इस्तेमाल कर रही हैं तो उनकी आधी आबादी ऐनिमिक भी बतायी जा रही हैं. 80 करोड़ आबादी की आर्थिक स्थिति यह कि उन्हें सरकारी सस्ते राशन की जरूरत है. यह भाजपा शासन की उपलब्धियों का सच बयां करती हैं.

कृषि कानूनों को बेमन से ही सही वापस लेकर सरकार फंस चुकी है. उनके वापसी का रास्ता बंद हो चुका है. किसानों की अन्य मांगों को मानना उनकी मजबूरी होगी, वरना किसान आंदोलन चलता रहेगा और उनकी सांप्रदायिक राजनीति उनके काम नहीं आयेगी. और यदि चुनावों में हार के डर से भी सरकार झुकती है, तो यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं. संसदीय व्यवस्था और चुनाव भी लोकतंत्र का ही एक उपक्रम है और सरकार और वोटर यदि वोट की ताकत को समझ लें तो यह भी लाकतंत्र को मजबूत करने के ही हक में हैं. सरकार को समझना है कि जिस जनता ने उन्हें चुना है और सत्ता में पहुंचाया है, वह उन्हें सत्ता से अपदस्थ भी कर सकती है, साथ ही जनता को भी यह एहसास होना चाहिए कि वोट एक बड़ी ताकत है और इसके सार्थक प्रयोग से वह निरंकुश सत्ता की नाक में नकेल डाल सकती है.