जीरो बजट फार्मिंग यानी प्राकृतिक खेती की चर्चा सभी तरफ हो रही है. आशा की जा रही है कि जीरो बजट खेती किसानो को महंगे मशीन, महंगे खाद और महंगी बीज से मुक्त करेगी. लेकिन जीरो बजट के नाम पर जिस खेती की चर्चा अब की जा रही है, उस तरह की खेती तो आदिवासी समाज सदियों से करता आ रहा है. अर्थात, हमारे पूर्वज तो सदियों से इस तरह की खेती कर रहे है जिन्हें खेती के काम के लिए मशीनों की जरूरत पड़ी, न रासायनिक खाद ही बाजार से खरीदना पड़ता है. आज सदियो से चलती आ रही खेती को ही लोग ‘जीरो बजट खेती’ का नाम देकर उसे प्रचलित कर रहे हैं. यह सही है कि अब कुछ आदिवासी किसान नई तकनीक और मशीनों की ओर आर्कषित होते जा रहे हैं, लेकिन बहुसंख्यक आदिवासी आज भी उसी तरह खेती करते हैं जिसे ‘जीरो बजट खेती’ कह कर प्रचारित किया जा रहा है. आईये, हम आपको संक्षेप में यह बताते हैं कि आदिवासी समाज धान की खेती, जो उसकी मुख्य फसल है, कैसे करते रहे हैं.

धान की खेती करने से पहले किसान उसके लिए बीज तैयार करते है. बीज नहीं खरीदते थे, घर का पुराना धान निकाल कर एक दिन पूरा पानी में भीगो कर रखते. सुबह उसे गोबर के साथ मिला कर बोरा में रख देते है. गोबर का प्रयोग किसान सदियों से कृषि में करते आ रहे है. गोबर को रोजाना एक जगह एकत्रित कर के रखते हैं. कुछ दिन बाद वह खाद बन जाता है. उससे बाद खेत के कुछ हिस्सा में बीड़ा करते है. बीड़ा करने के लिए व खेत में तीन या चार कतार बना कर उसमें गोबर का खाद मिला देते है और उसके उपर धान के अंकुरित बीज को कतार में छींट देते हैं.

उसके पश्चात एक तरफ खेत की जुताई करते है. जुताई के लिए बैल व काड़ा में लकड़ी का हल बांध कर खेत की जुताई करते है. ओर साथ में कुदाल का प्रयोग कर खेत के चारो ओर मेड़ को अच्छी तरह बनाते हंै. खेत तैयार होने के साथ-साथ धान का बीज पौधा का रुप ले लेता है. धान का बीज यानी बीड़ा उखाड़ने के लिए घर के सभी सदस्य व गांव की महिलाएं या लड़कियां मदद करती है. बीड़ा व खेत तैयार होने के बाद बीड़ा को खेत तक पहुंचाया जाता है.

किसान रोपनी के लिए दिहाड़ी मजदूर नही लगाते, घर के सदस्य व गांव की महिलाएं रोपनी में मदद करते हैं. रोपनी के बाद किसान समय-समय पर उसकी देखभाल करते हैं. धान पक जाने के बाद धान कटनी का समय आ जाता हैं. धान काटने के लिए भी किसान दिहाड़ी मजदूर व मशीनों का प्रयोग नहीं करते. घर व गांव कि सभी महिलाएं व लड़कियां मदद करती हैं. धान की कटाई के लिए वे हंसिया का प्रयोग करते हैं. धान की कटाई होने के बाद खलिहान में पहुंचाते हैं और सदियों से चलती आ रही परम्परा बैल व काड़ा को एक साथ दोनों को रास्सी बांध कर धान को खलिहान में थोड़ा-थोड़ा रख के उसके उपर बैल को घूमाते है. बैल के चलने से धान की बाली झर जाती है और फिर पोवाल व धान को अलग करते हैं.

उसके पश्चात वे धान को घर लाते और धान को उबाल कर सुखाते, फिर ढेकी के द्वारा धान के चावल को खोली से अलग करते हैं. यह परम्परा सदियों से चलता आ रहा हैं. हालांकि अब चावल मिले आ गयी हैं और ढ़ेकी का प्रयोग कम होने लगा है. घर के बीजों की जगह बाजार के बीजों का प्रयोग भी होने लगा है. लेकिन खेत की जोतायी, बुआई, कटनी आज भी धर, गांव के लोग मिल कर करते हैं. इसके लिए मशीनों का प्रयोग नहीं होता, दिहाड़ी मजदूर भी नहीं लगाये जाते. आदिवासी समाज के पास पैसा कहां है, हमारे पास है सिर्फ हमारा श्रम और वरदान स्वरुप हमारी प्रकृति.