नागालैंड में सुरक्षा बलों ने वहां के नागरिकों पर गोलियां चला कर 14 लोगों की हत्या कर दिया है और 11 लोगों को बुरी तरह घायल. यह घटना 4 नवंबर के शाम की है, जब कोयला खदानों में काम करने वाले मजदूर अपने काम से छुट्टी पा कर पिकअप वैन में घरों की ओर लौट रहे थे. वे गा रहे थे और खुश थे. ऐसे में नागालैंड की प्रतिबंधित संगठन ‘यंग अंग’ के विद्रोहियों की ताक में बैठे सुरक्षा बल के जवानों ने इन इन निर्दोष लोगों पर गोलियां चला दी जिसमें 7 लोग मारे गये.
काम से वापस नहीं लौटने पर मजदूरों के सगे संबंधी उनकी खोज में निकल पड़े. उनके मारे जाने की खबर से गुस्साये लोगों ने आर्मी कैंप पर धावा बोल दिया. उनमें आग लगा दी. सिपाहियों ने आत्म रक्षा के लिए फिर से गोलियां चलायी. इससे 7 और लोगों की जाने गयी और एक सिपाही भी मारा गया. इसमें खुफिया विभाग की भी गलती बतायी जा रही है. उन्होंने विद्रोहियों की गलत पहचान सुरक्षा बलों को दी, जिन्होंने इस घटना को अंजाम दिया. कहा यह भी जाता है विद्रोहियों को पहचान कर उन्हें मार गिराने का दबाव सुरक्षा बलों पर और खुफिया विभाग पर बहुत अधिक रहता है, जिसकी वजह से इस तरह की धटनाएं होती हैं. गृह मंत्रालय ने घटना की जांच का आदेश दे दिया है.
क्या इस घटना को इतना साधारण समझा जाये? 14 निर्दोष लोगों की जान महज गलत पहचान से चली जाये, इससे बढ़ कर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति नहीं हो सकती. उत्तर पूर्व के सात राज्य हिमालय की तराई में बसे हैं. ज्यादातर लोग पहाड़ी हैं, जो प्रकृति से प्राप्त साधनों से गुजर बसर करते हैं. लेकिन इन राज्यों के साथ समस्या यह है कि ये देश की एक सीमा पर बसे हैं. चीन, तिब्बत, म्यांमार, बांग्लादेश आदि की सीमाएं इससे जुड़ी हैं. इसलिए सीमाओं की सुरक्षा के लिए सरकार यहां हमेशा सेना की तैनाती रखती है.
खनिज संपदा से भरे इन राज्यों पर केंद्र सरकार तथा उद्योगपतियों की नजर हमेशा रही है. ये लोगों के हितों को ताक पर रख कर इसका दोहन करते हैं. वहां के स्थानीय लोग अपने जल, जंगल, जमीन से महरूम हो कर विपन्नता का जीवन जीते हैं या फिर एक सीमा के बाद विद्रोह करने लगते हैं. उत्तर पूर्व के हरेक राज्य में कई कई विद्रोही संगठन सक्रिय हैं. इनका उद्देश्य यह होता है कि वे किसी भी तरह सरकार का ध्यान अपने लोगों या उनकी समस्याओं की तरफ आकर्षित करे. यदि सरकार सकारात्मक रूख अपनाये, तो ये सरकार के साथ वार्ता करने तथा अपनी समस्याओं का समाधान करना चाहते हैं.
लेकिन सरकार इन विद्रोहियों को ही अपना शत्रु मान बैठी है. सरकार का यह भी मानना है कि सीमा के पार के देशों से इन विद्रोहियों को मदद मिलती है और उनकी शह पर ही वे सरकार का विद्रोह कर रहे हैं. इनको खत्म करना ही सरकार ने अपना लक्ष्य बना लिया है. इसके लिए सरकार ने 1958 में पारित सेना के विशेष अधिकार कानून के तहत वहां तैनात सेना तथा सुरक्षा बलों को विशेषाधिकार देकर शक्तिशाली बनाया है. अस्त्र शस्त्र से लैस विशेषाधिकर सेना ख्ुाद को वहां का शासक ही समझ बैठती है और साधारण लोगों को तंग करने में जुट जाती है.
जुलाई 15 2004 में मणिपुर में घटी उस घटना को हम कभी नहीं भूल सकते जब सेना विद्रोह के दमन के नाम पर घर घर की तलाशी लेने लगी और घर की महिलाओं के साथ बलात्कार करती रही. इसी दौरान 32 साल की तंगीजाम मनोरमा को बलात्कार के बाद मार दिया जाता है. इसी के विरोध में महिलाओं ने नग्न हो कर ‘मणिपुर की माओं का आंदोलन’ की तख्ती लिये जुलूस निकाला था. अंत में असम राईफल्स को कुछ समय के लिए वहां से हटना पड़ा. वहीं की ईरोम शर्मीला ने 7 साल तक भूख हड़ताल कर विशेषाधिकार युक्त इस सेना से राज्य को मुक्त करने की मांग की. सरकार ने उसे ही हिरासत में लेकर उसका उपवास तोड़ने का प्रयास किया, लेकिन सेना नहीं हटी.
उत्तर पूर्व के लोग सेना के इस विशेषाधिकार का शिकार तो हो ही रहे हैं, तो दूसरी ओर इन राज्यों में बाहर से आकर बसने वाले लोगों से उनकी भाषा, संस्कृति से उनके अस्तित्व को ही खतरा बन गया है. ऐसे में अपने को बचाने के लिए विद्रोह के अलावा उनके पास कोई और दूसरा रास्ता उन्हें नहीं सूझता. सेना को शक्तिशाली बना कर अनावश्यक लोगों की जान लेने की अपेक्षा यदि सरकार विद्रोह की जड़ो तक पहुंच कर उचित समाधान ढूढ़े तो शायद अच्छा हो.