संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि देश विभाजन की पीड़ा को तभी समाप्त किया जा सकता है, जब विभाजन को निरस्त किया जाए. यानी तीनों देश पुनः मिल कर एक हो जायें। सिद्धांत रूप में उनके कथन में कुछ गलत नहीं है, बल्कि स्वागत योग्य ही है, बशर्ते… इस ‘बशर्ते’ के पीछे से जुड़ी अनेक बातें हैं, इनका इतिहास है… बेशक धर्म किसी देश के निर्माण और एकता का मूल आधार नहीं हो सकता। यह बात तो विभाजन के महज 24 साल बाद ही साबित हो गयी, जब इसलाम के नाम पर और मुसलमानों के लिए बना पाकिस्तान भाषा और संस्कृति के प्रश्न पर टूट गयाय और बांग्लादेश नामक एक नया देश बन गया। उस दौरान पाकिस्तान की सरकार और सेना ने अपने ही हम-वतन और हम मजहबी बंगालियों को दुश्मन मान कर उनके साथ जो बर्ताव किया, वह जगजाहिर है। धर्म यदि देश का आधार होता तो यूरोप की ईसाई आबादी और मध्य एशिया की मुसलिम आबादी इतने मुल्कों में क्यों बंटी होती? किसी देश का भूगोल भी हमेशा एक जैसा नहीं रहता।
सही है कि विभाजन के बावजूद दोनों तरफ अल्पसंख्यकों की परेशानी खत्म नहीं हुई। कह सकते हैं कि अविभाजित भारत के मुसलमान ही अधिक पीड़ित हुए और हो रहे हैं। पाकिस्तान तो घोषित इसलामी देश बन गया। वहां रह गये हिंदुओं के साथ भेदभाव और उत्पीड़न एक तरह से लाजिमी था। पर भारत से खुद या लाचारी में गये मुसलमानों को भी पाकिस्तानमें में अपेक्षित सम्मान नहीं मिला। बांग्लादेश बनने के दौरान और बाद वहां एक सकारात्मक बदलाव आया। मगर जल्द ही धर्मांध मुसलिम तत्व व संगठन सिर उठाने लगे। गनीमत कि वहां की सरकार भी श्हिंदू तुष्टीकरणश् के आरोप झेल रही हैं। सो उम्मीद बरकरार है।
विचारणीय है कि 40 के दशक में दोनों प्रमुख धार्मिक समुदायों के बीच द्वेष, अविश्वास और नफरत का जो माहौल बन गया था, उसे देखते हुए विभाजन अपरिहार्य नहीं हो गया था? विभाजन नहीं होता तो दोनों तरफ के नफरती तत्व शांत और निष्प्रभावी हो जाते? नहीं, तो उस अखंड भारत में ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब कितने दिनों तक कायम रहती? इस सवाल पर विचार इस तथ्य पर ध्यान रखते हुए करना होगा कि अभी भारत की सत्तारूढ़ जमात तो ऐसी किसी तहजीब के अस्तित्व को ही नकारती है। यहां गांधी-नेहरू को खलनायक और गोडसे-सावरकर को आदर्श नायक के रूप में प्रतिष्ठित किया जा रहा है।
इसलिए यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि क्या ऐसा कहते समय श्री भागवत के मन में सचमुच उसी ‘अखंड भारत’ की कल्पना थी, जिसका सपना डॉ लोहिया और जेपी जैसे विभाजन के कट्टर विरोधी देखते थे? उनकी जमात तो ‘हिंदू राष्ट्र’ की बात करती है। उसी को अपना लक्ष्य मानती है। सच यह भी है कि जिन्ना सहित मुसलिम नेताओं की इस स्वाभाविक आशंका, कि आजाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंदू बहुमत में उनको न्याय नहीं मिलेगा, बराबरी नहीं मिलेगी, के कारण भी विभाजन की मांग जोर पकड़ती गयी। उस दौरान या उसके काफी पहले से श्री सावरकर और श्री गोलवलकर आदि खुल कर लिख रहे थे कि भारत तो हिंदू राष्ट्र है और यहां गैर हिंदुओं (और वे मुसलिमों और ईसाइयों के अलावा भारत में रहने वाले सभी को हिंदू मानते थे) को हिंदुओं की शर्तों पर, दूसरे दर्जे का नागरिक बन कर रहना होगा।
उस समय इन संकीर्ण हिंदू संगठनों का भले ही देश में, हिंदू समाज पर भी, बहुत प्रभाव नहीं था, लेकिन आजादी के महज सत्तर साल बाद हो रहे बदलाव को देखते हुए उस समय मुसलिम नेताओं ने जो आशंका जतायी थी, उसे सिरे से खारिज किया जा सकता है?
क्या श्री भागवत ने सोचा है कि यदि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश मिल कर एक बार फिर एक देश बन जाएं तो क्या होगा? पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने श्री भागवत के उक्त बयान पर नाराजगी जतायी है। लेकिन थोड़ी देर के लिए मान लें कि पाकिस्तान और बांग्लादेश की जनता इस सुझाव से सहमत हो जाये। इन देशों की संसद अपने अपने देश का विलय भारत में करने के प्रस्ताव पारित कर दें, तो? भारत को यह मंजूर होगा? भागवत का सुझाव है तो भारत की मौजूदा सरकार तो मान ही लेगी। मगर विभाजन की श्गलतीश् को दुरुस्त करने के इस फैसले का तत्काल क्या असर होगा, इसकी कल्पना करें। अभी भारत में लगभग सौ करोड़ हिंदू होंगे। करीब बीस करोड़ मुसलिम। तीनों देशों को मिला कर बने श्अखंड भारतश् में हिंदू आबादी में तो खास बढ़ोत्तरी नहीं होगी, मगर मुसलिम आबादी करीब पचास हो जायेगी।
क्या श्री भागवत ने यह हिसाब कर लिया होगा? हां, तो बीस करोड़ मुसलिम आबादी से श्त्रस्तश् भारत, दरअसल संघ, पचास करोड़ को कैसे झेलेगा? क्या उस अखंड भारत के, अभी जो पाकिस्तान और बांग्लादेश के इलाके हैं, वहां भी मुसलिमध्ऊर्दू नाम वाले शहरों, रेलवे स्टेशनों, सड़कों आदि के नाम बदले जायेंगे? क्या उन क्षेत्रों में भी बीफ पर पाबंदी लागू की जायेगी, सार्वजनिक स्थानों पर नमाज पढ़ने पर रोक रहेगी? जैसे भाजपा शासित हरियाणा में लग चुकी है। ऐसे अनेक सवाल हैं, जिन पर उनको विचार कर लेना चाहिएय या कर चुके हैं तो इनका जवाब देना चाहिए। या कि सबों की श्घर वापसीश् करा ली जायेगी? ऐसी योजना है भी, तो पहले अपने हिस्से के भारत में तो मुकम्मल कर लें। एक रिजवी को ‘त्यागी’ बना देने से क्या फर्क पड़ेगा!
नहीं, श्रीमान भागवत, अखंड भारत, जो लोहिया, जेपी की तरह बहुतों का सपना है, वह जोर जबरदस्ती या नफरत के बल पर नहीं बनेगा. परस्पर लगाव और सहिष्णुता की पुरानी परंपरा को मजबूत करके ही बनेगा, जिस ओर बढ़ने का कोई लक्षण अभी तो नजर नहीं आ रहा। हां, यदि यह भी एक शिगूफा ही है, तो बात और है।