नेहरु और मोदी में दूर दूर तक कोई समानता नहीं, बस इस एक समानता के कि दोनों को भारत जैसे विशाल लोकतांत्रित देश का प्रघानमंत्री बनने का अवसर प्राप्त हुआ. लेकिन इन दोनों के बीच कितना विशाल अंतर है, यह हाल में मोदी के पंजाब दौरे के समय प्रकट हो गया. प्रधान मंत्री मोदी अपनी एसपीजी सुरक्षा से घिरे एक जनसभा को संबोधित करने जा रहे थे. मौसम की खराबी की वजह से वे सड़क मार्ग से यात्रा कर रहे थे. एक जगह आंदोलनकारी किसानों का एक जत्था पहले से धरने पर बैठा था और संभव है कि उनकी वजह से प्रधानमंत्री की यात्रा कुछ मिनटों के लिए बाधित हो गयी. काफिला वहां से वापस हो गया.
प्रचारित यह किया गया कि यह कांग्रेस पार्टी की खूनी साजिश थी. और इस प्रोपेगेंडे को खड़ा करने में मोदी ने बखूबी भूमिका निभाई. पंजाब के मुख्यमंत्री को ‘जान बचने’ की बधाई देकर. एक ऐसे प्रधानमंत्री का यह वक्तव्य कितना हास्यास्पद है जो अपनी उस नई मर्सीडीज गाड़ी के भीतर बैठा था, जिस पर एके 47 की गोलियों का कोई असर नहीं होता और जो बड़े से बड़े धमाके को झेल सकने की क्षमता रखता है.
खैर, हम इस सुरक्षा कवच के डिटेल में नहीं जायेंगे. लेकिन हमारी चिंता का विषय तो यह है कि जिस व्यक्ति को अपने प्राणों का इतना भय हो, उसे क्या सार्वजनिक जीवन में सक्रिय होना चाहिए? और यहां तो बात एक लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री की हो रही है. जिस जनता ने वोट देकर आपको सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाया उससे ही इतना भय? इस बात को परत दर परत उधेड़ेंगे तो यहां जा कर खत्म होगा कि मोदी भले ही विविधताओं से भरे इस देश के प्रधानमंत्री हों, विशाल बहुमत से प्रधानमंत्री बनने का दावा करते हों, लेकिन हकीकत यह है कि अपने ‘भक्तों’ के अलावा वे अन्य सभी के बीच खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं. मुसलमान, सिख, ईसाई, उदार हिंदू -सभी से उन्हें खतरा महसूस होता है.
प्रोपेगैंडा के बीच एक बात यह भी निकली कि बगल में पाकिस्तान बोर्डर है, मोदी की जान को खतरा हो सकता था. सवाल उठता है कि क्या हमारे तमाम पड़ोसी मुल्को से ऐसे रिश्ते बन चुके हैं कि वे एक दूसरे के राजनायिकों की हत्या के फिराक में लगे रहते हैं?
अब आईये, वास्तविक खतरे के बीच नेहरु के बेखौफ व्यक्तित्व को, अपनी हिंदू, मुस्लिम, सिख जनता पर उनके अगाध विश्वास को याद करें. वह 1947 का जमाना था. देश विभाजन की पीड़ा और उन्माद झेल रहा था. ऐसे में मरने, मारने पर उतारु भीड़ के बीच नेहरु का बेखौफ बिना किसी सुरक्षा गार्ड के पहुंच जाना, भीड़ से लड़ना, उन्मादी भीड़ को डांटना- समझाना, नेहरु जैसे महान राजनायिक के लिए ही संभव था.
नेहरु को खबर मिली कि दिल्ली के कनाट प्लेस में हिंदू और सिख दंगाई मुसलमानों की दुकानों में लूटपाट कर रहे हैं. नेहरु बिना पल गंवायें वहां पहुंच गये. देखा कि दंगाई दुकानों से सामान लेकर भाग रहे हैं और पुलिस मूक दर्शक बनी हुई हैं. उन्हें इतना गुस्सा आया कि एक पुलिसकर्मी के हाथ से लाठी छीन दंगाईयों के पीछे दौड़ गये. कैसा रहा होगा यह दृश्य, आप कल्पना कर सकते हैं?
नेहरु के एक सहयोगी थे मोहम्मद युनूस. उनके पास रात ग्यारह बजे डा जकिर हुसैन का फोन आया. वही जाकिर हुसैन जो भारत के तीसरे राष्ट्रपति बने और जो उस वक्त जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रधानाध्यापक थे. उन्होंने फोन पर मोहम्मद युनूस को बताया कि एक दंगाई भीड़ कालेज के बाहर जमा हो गयी है और उनके इरादे नेक नजर नहीं आ रहे. फोन सुनते ही मोहम्मूद युनूस भागते हुए नेहरु के पास पहुंचे और उन्हें जानकारी दी. नेहरु उस वक्त अपने दफ्तर में बैठ कर काम कर रहे थे. सूचना प्राप्त होते ही उन्होंने अपनी कार मंगवाई और मोहम्मद युनूस को साथ लेकर बिना किसी सुरक्षा गार्ड के कालेज की तरफ रवाना हो गये. वहां पहंच कर देखा कि कालेज के डरे हुए छात्रों और कर्मचारियों ने भवन के अंदर शरण ले रखी है और बाहर उन्मादी भीड़. नेहरु भीड़ के सामने कूद पड़े. उन्हें डांटने फटकारने लगे.
इस बीच माउंट बैटन को यह जानकारी हो गयी कि नेहरु बिना सुरक्षा गार्ड के उन्मादी भीड़ के बीच पहुंच गये हैं. उन्होंने जीप में मशीनगन फिट करा कर अपने बाॅडीगार्ड नेहरु को बचाने के लिए रवाना कर दिये. वे लोग वहां पहुंचे तो उन्मादी भीड़ शांत हो चुकी थी और ‘नेहरु जिंदाबाद’ के नारे लगे रहे थे.
इस घटना का जिक्र मोहम्मद युनूस ने अपनी पुस्तक ‘परसन्स, पेशेंस एंड पालिटिक्स’ में किया है.
तो एक थे नेहरु और एक हैं मोदी!