इतनी समझदारी तो भारत के बच्चे बच्चे को है कि इस देश के किसान कभी भी अपने प्रधानमंत्री की जान लेने की बात सोच भी नहीं सकते. और देश को यह भी भरोसा रहा है कि उनका प्रधानमंत्री अपनी जान पर बन आने के मामले को हरसट्ठे किसानों पर नहीं थोपते फिरेगा। लेकिन चुनाव जो न करा दे..!

किसी संवैधानिक संस्था पद की गरिमा से लेकर सेना तक को दांव पर लगाने की शातिराना चाल अब सामान्य-सी बात होती जा रही है। इस देश ने यह पाठ बड़ी संजीदगी से पढ़ा कि जब मौसम चुनाव का हो तो फिसलन इतनी बढ़ जाती है कि प्रधानमंत्री के काफिले को कुछ दूरी पर से धरना देते किसान हत्या के नजरिये से खड़े बताये जा सकते हैं और घटना के 4 दिन के बाद भी वे गिरफ्तारी या धर पकड़ से मुक्त आवारा घूम सकते हैं! जबकि महज कुछ लिख भर देने से राष्ट्रद्रोह के मामले में हजारों लोग जेल भेज कर मरने तक के लिए छोड़े जा सकते हैं।

असल में नासमझी देश की ही है, जो वह एक अदद प्रधानमंत्री और एक चुनावबाज प्रधानमंत्री का फर्क समझने में घालमेल कर बैठता है।

हाँ, चुनावबाज प्रधानमंत्री, जो राजनीति को हमेशा चुनाव की नजर से देखता है। और ऐसा हो भी क्यों नहीं! आखिर ऐसा क्यों है कि भाजपा को बात बात पर यह जताना पड़ता है कि प्रधानमंत्री इस देश के ‘चुने हुए’ प्रधानमंत्री हैं, जबकि ये चुनने के पनछुछुर आंकड़े मात्र 33% के हैं। लेकिन एक व्यवस्था है, जो इसे कारगर बनाती है।

लेकिन सवाल कोई एक हो तब तो… इस देश की राजनीति की नैतिकता तो आपको यह याद दिला कर पटखनी दे ही देगी कि वर्तमान प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल की तरह दो बजे रात को जगा कर सर्वसम्मति से दल के नेता और प्रधानमंत्री थोड़े हीं बनाये गए हैं. ये तो बजाप्ता सेना सजा कर, एक युद्ध लड़ कर, हजारों कत्ल से मैदान को पाटकर प्रधानमंत्री होने का युद्ध जीते हैं..! तब आखिर इस युद्ध कला, विजय की जुगत और उसकी मानसिकता से कैसे निजात मिलेगी? खासकर जब नाव हिचकोले खा रही हो…!

अटल बिहारी बाजपेयी : वर्तमान प्रधानमंत्री के पुरखे, जिन्होंने भाजपा की बुनियाद ही रखी थी- ‘गांधीवादी समाजवाद’ की नींव पर। वह कितना दिखावा था या कितना जेपी और ‘74 आंदोलन में शामिल रहने का प्रभाव, यह अलग और अनुमान का विषय है। दक्षिणपंथी विचारधारा की हिंदू राष्ट्रवादी हवाओं ने कम बवंडर नहीं मचाया था खास कर जब अटल जी सत्ता तक पहुँचे।

लेकिन अटल जी अटल जी थे… आप कैसे भूल सकते हैं जिस अटल जी की सरकार एक वोट से गिर गयी हो‌। जिसे संसद की इतनी लंबी यात्रा ने अपने तरह से संवाद की समझ दी हो. जिसने विपक्षी मर्यादा में इतनी संजीदगी से लंबे अरसे तक खुद को पकने की तरजीह दी हो!

दूसरी ओर आप जरा वर्तमान प्रधानमंत्री के मेकअप को देखिये। संगठन का काम फिर सत्ता और फिर सत्ता। कभी विपक्ष की कुर्सी पर से सत्ता की बाट जोहनी पड़ती तो तो एक साथ फटाका खुलता कि डेमोक्रेसी में संवाद और मतभेद का क्या महत्व होता है?

अगले को तो जीवन में कभी इन सब चीजों से पाला ही नहीं पड़ा। हाँ, चुनाव से बराबर टक्कर ली है और संगठन भी खड़ी की है अगले ने। संगठन तो ऐसा खड़ी की है कि स्वयं की सेवा की शपथ लिये लोग आज अगले के नाम पर घर परिवार, सगे-संबंधी और छोटे-बड़े के लिहाज तक से मुक्त हैं।

सो, अगला संगठनबाज और चुनावबाज दोनों है।

हाँ, एक चीज समझना और जरूरी है। अटल जी के संगठनकर्ता होने में उनके व्यक्तिव की ओज इतनी थी कि प्याज के दाम बढ़ने पर बिहार की तब की सीएम राबड़ी देवी ने उन्हें रांड भांड कहते हुए सवाल दागा था कि वो क्या जानें कि एक औरत गृहस्थी कैसे चलाती है?

और जल्द ही पटना आने पर स्वयं राबड़ी जी नें अपने सीधे पल्ले की साड़ी का आंचल छुआते जब अटल जी का पैर छूकर गोड़ लागा तो राजनीतिक त्योरियाँ व्यक्तिगत रिश्तों के सामने स्नो पाउडर से भी तुच्छ नज़र आयीं।

अब फिर एक बार अटल जी के चुनावी मुद्दों पर नज़र डालिए तो जनाब निहायत पिलपिले नज़र आते हैं। आज ‘मोदी सेना’ ठठा ठठा कर हंसती है कि एक वोट से अटल जी की सरकार नहीं बनी थी।

अब सवाल ये है कि एक विचारधारा जिसने नेतृत्व और संगठन दोनों गढ़ने का दावा किया, वह सत्ता से कितनी बार चूकती रहे? वह विचारधारा क्या, वो संगठन क्या, जो सत्ता तक न पहुंचे?

इन्हीं सवालों ने तो जन्म दिया एक संगठनकर्ता चुनावबाज प्रधानमंत्री को!

अब आप अगले के संगठन को भी देखिये और उसकी चुनावबाजी को भी देखिये कि सत्तर अस्सी हजार कुर्सियों से भरी एक सभा में बामुश्किल् सात सौ लोग हैं… आधा पंजाब बड़े बड़े चुनावी होर्डिंग पोस्टर कटआउट से भरा है. जगह जगह पर किसान धरना दे रहे हैं. मौसम खराब है सो अलग…

प्रधानमंत्री की गाड़ी का काफिला एक फ्लाईओवर पर घिर जाता है; और जो लोग घेरते हैं वे प्रधानमंत्री के दल के हीं होते हैं… नारा भी ‘मोदी जिंदाबाद’ का लगा रहे होते हैं…

फिर भी अपनी जबरदस्त सुरक्षा घेरे के बावजूद मात्र बीस मिनट में ही प्रधानमंत्री की जान पर आ जाती है! और अब उनका संगठन महामृत्युंजय का जाप करा रहा है, क्योंकि ये संगठनकर्ता चुनावबाज प्रधानमंत्री है। चुनावी सफलता की नजर से सब जायज है, तो फिर सुरक्षा भी चुनाव की.

और चुनाव होने दीजिये। तब न दूध का दूध और पानी का पानी अलग होगा..