भाजपा के केंद्र की सत्ता की सीढ़ी उत्तरप्रदेश ही है. राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल में उसके दंभ की परीक्षा हो चुकी. कई जगह वह साफ हो गयी और कुछ राज्यों में विधायकों के दलबदल, खरीदफरोख्त आदि के अनैतिक तरीकों से वह सत्ता पर काबिज होने में सफल हो गयी. बावजूद इसके, यह मिथ तो टूट गया कई राज्यों में हुए पिछले चुनावों में ही कि मोदी और शाह की जोड़ी अपराजेय है. और अब पांच राज्यों में होने वाले चुनावों में उनकी बचीे खुची हेंकड़ी निकलने वाली है.

हमें यह समझना होगा कि दलगत चुनावों पर टिकी संसदीय व्यवस्था हमें हर पांच वर्षों में अपनी पुरानी भूलों को सुधारने और मनमाफिक सरकार बनाने का अवसर प्रदान करती है. लेकिन हमारी मूढ़ता की ही वजह से हम यह अवसर खो देते हैं और हमारी मूढ़ता और उनके दंभ की पराकाष्ठा यह कि योगी खुले आम यह कहते हैं कि यह यह चुनाव 80 और 20 के बीच है. यानि, 80 फीसदी हिंदू एक तरफ और 20 फीसदी मुसलमान दूसरी तरफ.

क्या यह आज की हकीकत है? समाज का वर्गीकृत ढ़ाचा, विषमता की खाई, मनुवादी व्यवस्था के भीतर का जातीय उत्पीड़न, सब बेकार की बातें हो चुकी? नोट बंदी की तबाही, कोरोना काल की उनकी असंवेदनशीलता, बढ़ती बेरोजगारी, विनाश के कगार पर पहंची अर्थ व्यवस्था, सब बातें बेमतलब हो चुकी हैं? ‘हिंदू राष्ट्र’ की उनकी कल्पना वास्तव में दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों को उतना ही विमोहित करती है जितनी मुट्ठी भर कट्टर मनुवादियों को?

मान कर चलिए, नहीं. वे यह भ्रम बनाना चाहते हैं. क्योंकि इस तरह के भ्रमजाल से ही वह 15 फीसदी आबादी देश के संसाधन और परिसंपत्तियों पर अपना कब्जा बनाये रखने की अंतिम कोशिश कर रही है. और इसे ही चुनौती दी है ठीक चुनाव के पहले भाजपा छोड़ सपा में शामिल होने वाले ओबीसी-दलित विधायकों, मंत्रियों ने यह कह कर कि यह लड़ाई 80 बनाम 20 की नहीं, 85 बनाम 15 की है. यानि, एक तरफ 85 फीसदी वंचित जमात के लोग और 15 फीसदी खाये, पीये, अधाये लोग जो अपना राजनीतिक वर्चस्व बनाये रखने के लिए सदियों से धर्म का इस्तेमाल करते रहे हैं.

इन 85 फीसदी में कौन लोग हैं? गटर में काम करने वाले और मरने वाले, खेतों में खटने वाले दलित, मोटर गैरजों और अन्य छोअे-मोटे वर्कशापों में काम करने वाले हुनरमंद मुसलमान, मिट्टी के बर्तन, अन्य बर्तन, कपड़ा बनने वाले, भारतीय ग्रामीण अर्थ व्यवस्था से जुड़े असंख्य लोग जो औद्योगीकरण की आंधी में अपनेा सर्वस्व खो कर उजरती मजदूर में बदल गये. उन मजदूरों में भी दो खेमा हो गया जिसे संगठित और असंगठित क्षेत्र में बांटा जा सकता है. और इस विशाल आबादी को धर्म की घुट्टी पिला, छद्म राष्ठ्रवाद के जहरीले नशे में डुबो कर वे अपना उल्लू सीधा करने में वे लगे हैं. भव्य राममंदिर और बाबा विश्वनाथ काॅरीडोर से जिनके जीवन में क्या फर्क आने वला है? भाजपा छोड़ सपा में शामिल होने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य ने स्पष्ट स्वर में कहां कि दलित पिछड़ों के वोट से भाजपा सरकार बनाये और अगड़े मलाई खायें, यह अब नहीं चलेगा. यदि यह बात समझ में आ जाये दलित और पिछड़ों को तो उत्तर प्रदेश में भाजपा के शासन का अंत निकट समझिये.

उत्तर प्रदेश में दिखाई यह भी दे रहा है कि सपा और भाजपा के अलावा चुनावी दंगल में अब कोई रहा ही नहीं. इस दिशा में राजनीति नेता नहीं ले जा रहे, जनता राजनीति को इस दिशा में ले जा रही है और यह अच्छे संकेत हैं. लोकतंत्र और मानवाधिकार के लिए लड़ने वाले तमाम निर्दलीय जमातों को भी बगैर किसी दुविधा में पड़े सपा के पक्ष में वातावरण बनाने की भूमिका में लग जाना चाहिए. यही समय का तकाजा है.