ई.सन 100 से 500 के बीच ही रामायण, महाभारत, वेद, पुराण आदि का लेखन हुआ. अभिज्ञान शाकुंतलम भी उसी दौर की रचना है. एक बात समझ से पड़े है कि जिस देश में राम को मर्यादा पुरुषोत्तम माना जाता है, वही दुष्यंत ऐसा लंपट राजा कैसे किसी साहित्यिक कृति का नायक हो सकता है. सवाल सिर्फ दुष्यंत का नहीं. संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम, जिसके सौंदर्य की सराहना करते विद्वतजन अघाते नहीं, महज हमारी काम भावनाओं को सहलाता है. पूरी विषय वस्तु ही इस दृष्टि से रची गयी प्रतीत होती है. वैसे प्राकृतिक चित्रण भी है, बारीक कीमियागिरि भी है जो रीतिकालीन हिंदी साहित्य के कई कवियों में मिलता है, लेकिन सब पर प्रभावी है एक तरह की पुरुष लंपटता.

शुरु से गौर कीजिये. अपने स्वर्गलोक के छिन जाने के डर से भयभीत इंद्र हमेशा की तरह विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए मेनका को भेजता है. वह तपस्या भंग करते करते गर्भवति हो जाती है. अपनी बच्ची को वहीं जंगल में छोड़ अपने लोक लौट जाती है. जंगल में ऋषि के आश्रम में पलती है शकुंतला. दुष्यंत को देखते ही कामामतिरेक में पस्त हो जाती है.

और एक प्रतापी राजा दुश्यंत चोर की तरह उस अवस्था में छुप छुप कर निहारता रहता है. और मौका मिलते ही उसके पैर गोद में रख कर दबाने का अनुरोध करता है - ‘..क्या मैं शीतल तथा थकावट को दूर करने वाले कमलपत्र के पंखे से ठंढी हवा करूं? अथवा हे करमोरु! तुम्हारे कमल के सदृश्य लाल चरणों को गोद में रख कर सुख पूर्वक दबाउं?’

और जब शकुंतला मना करती है तो कहता है - ‘..हे सुदरी! भ्रमर के द्वारा नवविकसित पुष्प के सदृश्य, प्यासे मेरे द्वारा अक्षत तथा कोमल अधर का रस दयाभाव के साथ पिया जा रहा है, उसके पश्चात तुझे छोड़ूंगा.’

अब इसमें काव्य प्रेमी उपमा और अलंकार खोजते रहे, हमें तो सिर्फ और सिर्फ लंपटता ही दिखाई देती है.